Monday, 24 March 2014

माता हिंगुलाज साधना - Mata Hingula / Hinglaj / Hingulaj sadhna

माता हिंगुलाज साधना - Mata Hingula / Hinglaj / Hingulaj sadhna



माता हिंगुलाज का उद्भव दक्ष यज्ञ के समय जब माता सती ने आत्मदाह कर लिया एवं इसके पश्चात् भगवन शिव माता के मृत शरीर को लेकर ब्रह्माण्ड के चक्कर काटने लगे - ब्रह्माण्ड का संतुलन डगमगाने लगा उस समय सभी देवताओं की प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि सती के मृत शरीर कि छिन्न - भिन्न कर दो उस समय सुदर्शन चक्र ने सती के अंगो को काटना प्रारम्भ किया और इस क्रम में माता के ब्रह्मरंध्र का हिस्सा जहाँ पर गिरा वहाँ एक शक्तिपीठ का अस्तित्व बना जिसे ( हिंगुल / हिंगुलाज ) शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है -!


यह शक्ति पीठ भारत से बाहर पाकिस्तान में अवस्थित है ( कराची शहर से १२५ किलोमीटर उत्तर पूर्व बलूचिस्तान क्षेत्र में ) यहाँ कि अधिष्ठात्री शक्ति कोट्टरी और भैरव भीमलोचन के नाम से जाने जाते हैं -!


आने वाले नवरात्रों और माता हिंगुलाज के भक्तों कि मांग पर मैं माता हिंगुलाज कि पूजा विधि का वर्णन करने जा रहा हूँ जिसका आधार वैदिक और षोडशोपचार पूजन है - किन्तु किसी भी पूजन में सामर्थ्य बहुत महत्व रखती है इसलिए जो भी भक्त इस विस्तृत पूजन का विधान न कर सकें उनके लिए पंचोपचार पूजन का विधान भी उनता ही महत्व रखता है और बराबर फल ही मिलता है -!~


लेकिन आलस्य और प्रमाद कि वजह से यदि विधान को छोटा करने कि कोशिश कि जाती है तो उसका परिणाम भी उसी तरह छोटा होता है - इसलिए मैं अपने सभी विधानों में एक ही बात मुख्य रूप से सम्मिलित करता हूँ कि यदि सम्भव है और आपकी सामर्थ्य है तो वैदिक विधान का ही पालन करें यदि आपके पास सामर्थ्य नहीं है तो लघु विधान का पालन करें - इसके अतिरिक्त यदि मेरे लिखे हुए विधान और आपके पारम्परिक विधान में कोई विषमता है तो आप अपने पारम्परिक / लोक विधान का पालन करें :-!


माता को लाल रंग एवं गुलाब का इत्र बहुत पसंद है 

पूजन क्रम :-

माता कि पूजा कई उपचारों से कि जाती है जिसमे कि :-

१. पंचोपचार :-

  • गंध
  • पुष्प
  • धूप
  • दीप
  • नैवेद्य
२. दशोपचार :-

  1. पाद्य
  2. अर्घ्य
  3. आचमन
  4. मधुपर्क
  5. पुनराचमन
  6. गन्ध
  7. पुष्प
  8. धूप
  9. दीप
  10. नैवेद्य
३. षोडशोपचार :- षोडशोपचार के मामले में कभी भी एक सामान क्रम और समान चरण नहीं मिलते हैं क्योंकि साधक के पास उपलब्ध साधनों और श्रद्धा तथा पूजा के प्रकार के आधार पर इनके क्रम और संख्या में परिवर्तन हो जाते हैं अतएव इस सम्बन्ध में भ्रमित न हों और अपनी सामर्थ्यानुसार चरणों का अनुसरण करें ( जहाँ पर संख्या बढ़ जाती है वहाँ वास्तव में मूल चरण के उप चरण जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं जैसे कि उदाहरणार्थ - मधुपर्क = दूध , दही , शक्कर / चीनी , घी , शहद - अब यहाँ पर यदि देखा जाये तो मधुपर्क के पांच उप चरण बन गए )

प्रथम पूजन खंड


आवाहन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आगच्छय आगच्छय ::

आसन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आसनं समर्पयामि ::

पाद्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय पाद्यं समर्पयामि ::

अर्घ्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय अर्घ्यं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आचमनीयं निवेदयामि ::

मधुपर्क :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय मधुपर्कं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
   मनः शिवे श्री हिंगुलाय पुनराचमनीयम् निवेदयामि   ::

स्नान :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय स्नानं निवेदयामि ::

वस्त्र :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय प्रथम वस्त्रं समर्पयामि ::

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय द्वितीय वस्त्रं समर्पयामि ::

आभूषण :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आभूषणं समर्पयामि ::

सिन्दूर :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय सिन्दूरं समर्पयामि ::

कुंकुम :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय कुंकुमं समर्पयामि ::

गन्ध / इत्र :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय सुगन्धित द्रव्यं समर्पयामि ::
पुष्प

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय पुष्पं समर्पयामि ::

धूप / अगरबत्ती :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय धूपं समर्पयामि ::

दीप :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय दीपं दर्शयामि ::

नैवेद्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नैवेद्यं समर्पयामि ::

मध्यम पूजन खंड :-

नैवेद्य समर्पण के बाद पूजन का मध्यम क्रम आरम्भ होता है जिसमे शप्तशती पाठ एवं अन्य कर्म सम्पादित किये जाते हैं :-

  • अष्टोत्तरशत नाम 
  • कवच 
  • अर्गला 
  • कीलक 
  • चालीसा 
  • अन्य स्तोत्र 

अष्टोतर शत नाम :-
  1. हिंगुले 
  2. हिंगलाज 
  3. अमृतरूपिणी 
  4. शिवे 
  5. कोट्टरी 
  6. बलूची 
  7. बलूच क्षेत्र निवासिनी 
  8. दुर्गा 
  9. क्षमा 
  10. शिवा 
  11. धात्री 
  12. गौरी 
  13. पार्वती
  14. दुष्ट संहारिणी 
  15. भक्त भयहारिणी 
  16. भव तारिणी 
  17. मंगला 
  18. स्वाहा 
  19. स्वधा 
  20. कोटराक्षी 
  21. दक्ष यज्ञ विध्वंसिनी 
  22. शिव बल्लभा 
  23. काली 
  24. कपालिनी 
  25. सती
  26. साध्वी
  27. जया
  28. आद्या
  29. त्रिनेत्रा
  30. शूलधारिणी
  31. पिनाकधारिणी
  32. महातपा
  33. मन
  34. बुद्धि
  35. चित्तरूपा
  36. चिता
  37. चिति
  38. सर्वमंत्रमयी
  39. सत्ता
  40. सत्यानन्द स्वरूपिणी
  41. अनंता
  42. भाविनी
  43. अभव्या
  44. सदागति
  45. शाम्भवी
  46. देवमाता
  47. चिंता
  48. रत्नप्रिया
  49. सर्वविद्या
  50. दक्ष कन्या
  51. अपर्णा
  52. अनेकवर्णा
  53. सुन्दरी
  54. सुरसुन्दरी
  55. वनदुर्गा
  56. मातंगी
  57. ब्राह्मी
  58. माहेश्वरी
  59. एन्द्री
  60. कौमारी
  61. वैष्णवी
  62. चामुंडा
  63. वाराही
  64. लक्ष्मी
  65. विमला
  66. उत्कर्षिणी
  67. ज्ञाना
  68. क्रिया
  69. नित्या 
  70. बुद्धिदा
  71. बहुला
  72. सर्व वाहन वाहना
  73. निशुम्भ-शुम्भ हननी
  74. महिषासुरमर्दिनी
  75. मधुकैटभ हन्त्री
  76. चंड मुंड विनासिनी
  77. सर्वासुरविनाशा
  78. सर्वदानवघातिनी
  79. सर्वशास्त्रमयी
  80. सत्या
  81. सर्वास्त्र धारिणी
  82. कुमारी
  83. एककन्या
  84. कैशोरी
  85. युवती
  86. प्रोढ़ा
  87. वृद्धमात
  88. बलप्रदा
  89. महोदरी
  90. मुक्तकेशी
  91. घोररूपा
  92. महाबला
  93. अग्निज्वाला
  94. रौद्रमुखी
  95. कालरात्रि
  96. तपस्विनी
  97. नारायणी
  98. भद्रकाली
  99. विष्णुमाया
  100. जलोदरी
  101. शिवदूती
  102. कराली
  103. अनंता
  104. परमेश्वरी
  105. कात्यायिनी
  106. सावित्री
  107. प्रत्यक्षा
  108. ब्रह्मवादिनी


कवच :-

।। अथ देवी कवचम् ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।

अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ।। ६।

न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ।। ८।।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ।। ९।।

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१०।।

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।।११।।

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ।।१२।।

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।।१३।।

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ।।१४।।

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।।१५।।

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।।१६।।

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७।।

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८।।

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।।१९।।

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।।२०।।

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ।।२१।।

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा तु नासिके ।।२२।।

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।

नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ।। ३७।।

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्या च चक्रिणी ।। ३९।।

गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।।४१।।

रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।।४२।।

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३।।

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।।४४।।

निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।। ४८।।

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ।। ४९।।

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।

गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे ह्रदि संस्थिते ।
मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभुतले ।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।।५३।।

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ।। ५४।।

देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५।।
लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ।। ५६।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देवीकवचं समाप्तम् ।

अर्गला स्तोत्रम :-
।।ॐ नमश्वण्डिकायै।।

मार्कण्डेय उवाच

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।। १।।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।। २।।

मधुकैटभविद्रावि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ३।।

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५।।

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ७।।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ९।।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ११।।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमयच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १३।।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १४।।

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १५।।

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १७।।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १९।।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २१।।

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २३।।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।।२४।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
स तु सप्तशतींसंख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्।।ॐ।। २५।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ।।



कीलक स्तोत्रम :-

।। अथ कीलकस्तोत्रम् ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच 

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।। १।।

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम् ।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ।। २।।

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि ।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ।। ३।।

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते ।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ।। ४।।

समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशङ्कामिमां हरः ।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ।। ५।।

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः ।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम् ।। ६।।

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः ।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।। ७।।

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।। ८।।

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ।। ९।।

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते ।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। १०।।

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति ।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।। ११।।

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने ।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदम् शुभम् ।। १२।।

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः ।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ।। १३।।

ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः ।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ।।ॐ।। १४।।

।। इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम् ।


चालीसा :-

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥


निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूं लोक फैली उजियारी॥


शशि ललाट मुख महाविशाला।
नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥


रूप मातु को अधिक सुहावे।
दरश करत जन अति सुख पावे॥


तुम संसार शक्ति लै कीना।
पालन हेतु अन्न धन दीना॥


अन्नपूर्णा हुई जग पाला।
तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥


प्रलयकाल सब नाशन हारी।
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥


शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥


रूप सरस्वती को तुम धारा।
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥


धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।
परगट भई फाड़कर खम्बा॥


रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥


लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।
श्री नारायण अंग समाहीं॥


क्षीरसिन्धु में करत विलासा।
दयासिन्धु दीजै मन आसा॥


हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी॥


मातंगी अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥


श्री भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥


केहरि वाहन सोह भवानी।
लांगुर वीर चलत अगवानी॥


कर में खप्पर खड्ग विराजै।
जाको देख काल डर भाजै॥


सोहै अस्त्र और त्रिशूला।
जाते उठत शत्रु हिय शूला॥


नगरकोट में तुम्हीं विराजत।
तिहुंलोक में डंका बाजत॥


शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे।
रक्तबीज शंखन संहारे॥


महिषासुर नृप अति अभिमानी।
जेहि अघ भार मही अकुलानी॥


रूप कराल कालिका धारा।
सेन सहित तुम तिहि संहारा॥


परी गाढ़ संतन पर जब जब।
भई सहाय मातु तुम तब तब॥


अमरपुरी अरु बासव लोका।
तब महिमा सब रहें अशोका॥


ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥


प्रेम भक्ति से जो यश गावें।
दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥


ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥


जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥


शंकर आचारज तप कीनो।
काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥


निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।
काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥


शक्ति रूप का मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो॥


शरणागत हुई कीर्ति बखानी।
जय जय जय जगदम्ब भवानी॥


भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥


मोको मातु कष्ट अति घेरो।
तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥


आशा तृष्णा निपट सतावें।
मोह मदादिक सब बिनशावें॥


शत्रु नाश कीजै महारानी।
सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥


करो कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।


जब लगि जिऊं दया फल पाऊं ।
तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥


दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।
सब सुख भोग परमपद पावै॥


देवीदास शरण निज जानी।
करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥


॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥





समापन खंड / अंतिम पूजन खंड :-

प्रणामाज्जलि / पुष्पांजलि :-

:: ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नमः स्वाहा
ब्रह्मरन्ध्रं हिंगुलायाम् भैरवः भीमलोचनः
कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी ::
पुष्पांजलिं समर्पयामि 

नीराजन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नीराजनं समर्पयामि ::

दक्षिणा :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय दक्षिणां समर्पयामि ::


अपराधा क्षमा याचना :-

अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया । 
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । 
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् । 
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदंबिके । 
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् क। 
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे । 
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥८॥

 
आरती :-

ॐ सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते ॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी । तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ टेक ॥

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को । उज्जवल से दो‌उ नैना, चन्द्रबदन नीको ॥ जय

कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै । रक्त पुष्प गलमाला, कण्ठन पर साजै ॥ जय

केहरि वाहन राजत, खड़ग खप्परधारी । सुर नर मुनिजन सेवक, तिनके दुखहारी ॥ जय

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती । कोटिक चन्द्र दिवाकर, राजत सम ज्योति ॥ जय

शुम्भ निशुम्भ विडारे, महिषासुर घाती । धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ जय

चण्ड मुण्ड संघारे, शोणित बीज हरे । मधुकैटभ दो‌उ मारे, सुर भयहीन करे ॥ जय

ब्रहमाणी रुद्राणी तुम कमला रानी । आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ जय

चौसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैरुं । बाजत ताल मृदंगा, अरु बाजत डमरु ॥ जय

तुम हो जग की माता, तुम ही हो भर्ता । भक्‍तन् की दुःख हरता, सुख-सम्पत्ति करता ॥ जय

भुजा चार अति शोभित, खड़ग खप्परधारी । मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ जय

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती । श्री मालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योति ॥ जय

श्री अम्बे जी की आरती, जो को‌ई नर गावै । कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावै ॥ जय


आरती आचमन / प्रहर आचमन

नवरात्रें कुछ विशेष तथ्य :-

१. नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।

२. नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है

३. माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है

४. नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए।

५. भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।

६. नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।

७ . लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्र मैं पान मैं गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें

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