Navratri Pujan - Navratre - 9 Days Festival - नवरात्रि पूजन - नवरात्रे - ९ दिन का त्योहार
इस सम्बन्ध में मैं यही कहूंगा कि आप सब अपने स्थानीय पंचांग या जानकारों से जानकारी ले लें और उसी हिसाब से प्रारम्भ या समापन करें -!
नवरात्र विवेचन :- नव + रात्रि
नव :- अर्थात ९ एक ऐसा अंक है जो अपने आप में सम्पूर्णता का प्रतीक है अंक विज्ञानं के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाये तो ९ का अंक अपने आप में सम्पूर्ण और अंतिम अंक कहलाता है जो महानता का प्रतीक है - प्राथमिक अंकों कि श्रेणी में यह अंतिम अंक है भी गणनाएं होती हैं वे इन्ही प्राथमिक अंको का गुणन या योग होती हैं यानि कि अंक विवेचन इंगित करता है कि ९ एक परम और पूर्ण संख्या है लेकिन यह अभाज्य नहीं है अतएव कई बार देखने में आता है कि इसमें बदल भी हो जाते हैं -!
रात्रि :- रात्रि शब्द शून्य और शांति का प्रतीक है जिस जगह पर आकर सब कुछ शांत हो जाता है - इस काल में भौतिक जीवन कि भाग दौड़ और जीविका वृत्तियों कि थकान मिटाने के लिए माता महामाया कालरात्रि कि गोद में खुद को सौंप देता है और अर्धमृत्यु कि अवस्था को प्राप्त होता है - रात्रिं में पूर्ण शान्ति होती है. पराविद्याएं सबल होती है. मन-ध्यान को एकाग्र करना सरल होता है. प्रकृ्ति के बहुत सारे अवरोध समाप्त हो जाते है - शान्त वातावरण में मंत्रों का जाप विशेष लाभ देता है - ऎसे में ध्यान भटकने की सम्भावनाएं कम हो जाती है - इस समय को आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और य़ौगिक शक्तियों की प्राप्ति के लिये सरलता से उपयोग किया जा सकता है - इसका अर्थ है कि साधक या भक्त को इस काल में अपने आपको शून्य जहाँ कोई अहम् - कोई विकार शेष न बचे और सम्पूर्ण रूप से अपने इष्ट या माता आदिशक्ति के ध्यान में इस तरह से खुद को वृत्तचित्त कर ले कि जहाँ उसका खुद का कोई अस्तित्व न बचे सब कुछ मातामय हो जाये और खुद को समर्पित करके फिर निर्विकार भाव सिर्फ दृष्टा बनकर रहे कर्ता का भाव ही न रहे -!
नवरात्रि :- इस प्रकार से यह समय इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि यह समय काल सम्पूर्ण रूप से उस महान एवं ममतामयी आदिशक्ति को समर्पित है अपने आप में सम्पूर्ण है और समस्त जगत का कारण है जिससे बहार कुछ भी नहीं उसकी साधना में खुद को पूरी तरह से समर्पित कर देने का त्योहार है "नवरात्रि " पर्व -!
कई जगह पर यह उल्लेख भी मिलता है कि इस काल में साधक को ९ दिनों तक सोना नहीं चाहिए - किन्तु कई बार परिश्थितिवश यह सम्भव नहीं होता - अतएव यह कहा गया कि जब तक आप व्रत काल में हैं तो दिन में कतई न सोएं - और मेरे हिसाब से इस निषेध का पालन किया जा सकता है :-
नवरात्रें भी वर्ष में चार होती हैं जिनमे से दो ज्ञात और दो अज्ञात नवरात्रों के रूप में जानी जाती हैं :-
२. बासन्त / चैत्र मॉस नवरात्रे ( प्रारम्भ शुक्ल पक्ष )
३. आषाढ़ नवरात्रे ( प्रारम्भ शुक्ल पक्ष )
४. माघ नवरात्रे ( प्रारम्भ शुक्ल पक्ष )
इनमे से प्रथम दो ज्ञात / प्रकट नवरात्रों के रूप में जानी जाती हैं :- मुख्यतः गृहस्थ लोगों के लिए प्रथम दो नवरात्रों का ही विशेष महत्त्व है तथा इसमें माता दुर्गा अपनी अन्य ८ योगिनी या मातृका शक्तियों के साथ पूजित होती हैं
अंतिम दो अज्ञात / गुप्त नवरात्रों के रूप में जानी जाती हैं और इन महत्त्व तंत्र जगत में बहुत महत्वपूर्ण है -! इस काल में कि गयी साधना ज्यादा फलीभूत एवं प्रभावी होती है एवं ऐसे लोग जिन्होंने बहुत बार साधनाएं कि हैं किन्तु उनकी साधना सफल / सार्थक नहीं हो पा रही - वे लोग यदि इस काल में साधनाएं करें तो उन्हें निश्चित रूप से सफलता मिलेगी -! गुप्त नवरात्रें माता महाकाली के साथ दस महाविद्याओं के लिए जानी जाती हैं
नवरात्रों में माँ दुर्गा के रूप कि आराधना कि जाती है जिसमे वे अपने ८ योगिनी / मातृका शक्तियों के साथ पूजित होती हैं उन मातृका शक्तियों का विवरण निम्न प्रकार है :-
- शैलपुत्री
- ब्रह्मचारिणी
- चंद्रघंटा
- कूष्माण्डा
- स्कन्दमाता
- कात्यायनी
- कालरात्रि
- महागौरी
- सिद्धिदात्री
- महाकाली
- तारा
- षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी
- भुवनेश्वरी
- छिन्नमस्ता
- भैरवी
- धूमावती
- बगलामुखी
- मातंगी
- कमला
नवरात्रि पूजन का विधान वैसे तो दुर्गा शप्तशती में पूर्ण रूपेण वर्णित है और आराधना करने वालों को उसी के हिसाब से अपनी पूजा अर्चना सम्पन्न करनी चाहिए किन्तु जन कल्याण के उद्देश्य से मैं एक बार पुनः विधान दे रहा हूँ और आशा करता हूँ कि महिमामयी माता कि कृपा आप सब को प्राप्त होगी -!
विधान :-
अ. नवग्रह पूजन
ब. घट / कलश स्थापन
स. मातृ पूजन
समस्त पूजन संपन्न करने के लिए आपको जो कुछ सामग्री चाहिए वह निम्न प्रकार है :-
घट / कलश :-
घट / कलश :-
सामग्री :-
- जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र
- जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिटटी
- पात्र में बोने के लिए जौ
- घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश
- कलश में भरने के लिए शुद्ध जल, गंगाजल
- मोली/कलेवा/हाथ पर रक्षा बंधन हेतु
- इत्र
- साबुत सुपारी
- कलश में रखने के लिए कुछ सिक्के
- अशोक या आम के 5 पत्ते
- कलश ढकने के लिए ढक्कन
- ढक्कन में रखने के लिए बिना टूटे चावल
- पानी वाला नारियल
- नारियल पर लपेटने के लिए लाल कपडा
- फूल माला
नवग्रह पूजन :-
अन्य पूजन सामग्री :-
व्रत :-
घट स्थापन एवं मातृ स्थापन के साथ ही व्रत प्रारम्भ हो जाता है यदि सुविधाजनक महसूस हो तो पूरे ९ दिन का व्रत रखा जा सकता है अन्यथा सिर्फ २ दिन का व्रत भी रखा जा सकता है जिसमे प्रथम दिन और अंतिम दिन का व्रत भी पूर्ण प्रभाव देने वाला मन गया है - किन्तु यदि आलस्य वश या उचित वजह के बिना ऐसा किया जाता है तो परिणाम भी उसी के अनुसार प्राप्त होंगे -!
व्रत के समय प्रयोग की जा सकने वाली सामग्री :-
नवरात्रों के व्रत में अन्न एवं नमक वर्जित हैं जिनका सेवन नहीं करना चाहिए किन्तु स्थानीय लोकाचार एवं नियम जिस बात कि अनुमति देते हों वह वर्जना के क्षेत्र में नहीं आती है जैसे की देश के कई भागों कि संस्कृति का अध्ययन करने पर मैंने देखा कि :-
खैर इस सम्बन्ध में सिर्फ इतना ही कहा जाना चाहिए कि यह सारा मामला श्रद्धा और शक्ति पर निर्भर करता है आपकी आत्मा और आपकी लोक संस्कृति जिन तरीकों को सत्यापित करती है वही उत्तम है और चूँकि दोनों ही नवरात्रे मौसम के संधिकाल में पड़ते हैं अतएव ज्यादा भूख प्यास भी नहीं लगती
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
पूजन क्रम :-
माता कि पूजा कई उपचारों से कि जाती है जिसमे कि :-
- एक चौकी / बाजोट
- सफ़ेद रंग का कपडा
- सफ़ेद रंग का धागा
- अक्षत
- पान
- सुपारी
- नारियल
- कुछ पैसे - धन - मुद्राएं
- एक चौकी / बाजोट
- माता की प्रतिमा
- एवं अन्य पूजन सामग्री
- लाल रंग का कपडा सवा मीटर
- दूध
- दही
- घी
- शहद
- शक्कर / खांड / चीनी
- गंगाजल / शुद्ध जल
- पुष्प
- पुष्प माला
- अक्षत / चावल ( दो रंग के प्रयोग होंगे १. सफ़ेद / बिना रंगे हुए २. रंगे हुए लाल रंग के एवं पूजन में जहाँ भी अक्षत शब्द का प्रयोग होगा वहाँ रेंज हुए चावल प्रयोग होंगे )
- आसन ( लाल रंग का )
- माला ( लाल रंग अर्थात लाल चन्दन की )
- हवन सामग्री
- कुछ कंडे / उपले ( इन कंडों / उपलों को जलाकर आग तैयार कर लें जिसमे आपको हवन सामग्री से आहुतियां देनी होंगी
- गुग्गल ( गुग्गल का प्रयोग हवं सामग्री में मिलाने के लिए किया जाता है या हवन करने के लिए सिर्फ गुग्गल का प्रयोग भी किया जा सकता है )
- इत्र
- एक दीपक ( जो कि बाजार में भी बना बनाया पीतल का मिल जाता है या फिर मिटटी कि दियाली का भी प्रयोग कर सकते हैं )
- कपास कि रुई
- कपूर
- पांच प्रकार कि मिठाई ( अनुपलब्धता की स्थिति में जो उपलब्ध हो वही प्रयोग करें )
- नारियल
- दक्षिणा द्रव्य / फुटकर रुपये
- गाय का गोबर ( यदि उपलब्ध न हो सके तो गंगाजल / शुद्ध जल से भी काम लिया जा सकता है
- शप्तशती की एक पुस्तक
- अन्य वस्तुएं आवश्यकतानुसार
व्रत के समय प्रयोग की जा सकने वाली सामग्री :-
नवरात्रों के व्रत में अन्न एवं नमक वर्जित हैं जिनका सेवन नहीं करना चाहिए किन्तु स्थानीय लोकाचार एवं नियम जिस बात कि अनुमति देते हों वह वर्जना के क्षेत्र में नहीं आती है जैसे की देश के कई भागों कि संस्कृति का अध्ययन करने पर मैंने देखा कि :-
- कुछ जगहों में पुरे दिन के व्रत के बाद सायंकाल में भोजन का रिवाज है
- कुछ लोग अपने व्रत के भोजन में सेंधा नमक का भी प्रयोग करते हैं
- कुछ लोग निर्जला व्रत रखते हैं
- कुछ लोग सिर्फ फलाहार करते हैं और वह भी दिन में एक बार
- कुछ लोग जब भी मौका मिले कुछ न कुछ ग्रहण कर लेते हैं
खैर इस सम्बन्ध में सिर्फ इतना ही कहा जाना चाहिए कि यह सारा मामला श्रद्धा और शक्ति पर निर्भर करता है आपकी आत्मा और आपकी लोक संस्कृति जिन तरीकों को सत्यापित करती है वही उत्तम है और चूँकि दोनों ही नवरात्रे मौसम के संधिकाल में पड़ते हैं अतएव ज्यादा भूख प्यास भी नहीं लगती
- कुट्टू (शैलान्न) / सिंघाड़ा
- दूध-दही / दूध युक्त पदार्थ
- चौलाई (चंद्रघंटा) / वनस्पतियां
- पेठा (कूष्माण्डा)
- श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
- हरी तरकारी (कात्यायनी)
- काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
- साबूदाना (महागौरी)
- आंवला (सिद्धिदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
माता कि पूजा कई उपचारों से कि जाती है जिसमे कि :-
१. पंचोपचार :-
अ. गंध
ब. पुष्प
स. धूप
द. दीप
य. नैवेद्य
ब. पुष्प
स. धूप
द. दीप
य. नैवेद्य
२. दशोपचार :-
1. पाद्य
2. अर्घ्य
3. आचमन
4. मधुपर्क
5. पुनराचमन
6. गन्ध
7. पुष्प
8. धूप
9. दीप
10. नैवेद्य
2. अर्घ्य
3. आचमन
4. मधुपर्क
5. पुनराचमन
6. गन्ध
7. पुष्प
8. धूप
9. दीप
10. नैवेद्य
३. षोडशोपचार :- षोडशोपचार के मामले में कभी भी एक सामान क्रम और समान चरण नहीं मिलते हैं क्योंकि साधक के पास उपलब्ध साधनों और श्रद्धा तथा पूजा के प्रकार के आधार पर इनके क्रम और संख्या में परिवर्तन हो जाते हैं अतएव इस सम्बन्ध में भ्रमित न हों और अपनी सामर्थ्यानुसार चरणों का अनुसरण करें ( जहाँ पर संख्या बढ़ जाती है वहाँ वास्तव में मूल चरण के उप चरण जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं जैसे कि उदाहरणार्थ - मधुपर्क = दूध , दही , शक्कर / चीनी , घी , शहद - अब यहाँ पर यदि देखा जाये तो मधुपर्क के पांच उप चरण बन गए )
प्रथम पूजन खंड
मध्यम पूजन खंड :-- आसन
- स्वागत
- पाद्य
- अर्घ्य
- आचमन
- मधुपर्क
- आचमन
- स्नान
- वस्त्र
- आभूषण
- सिन्दूर
- कुंकुम
- गन्ध / इत्र
- पुष्प
- धूप / अगरबत्ती
- दीप
- नैवेद्य
नैवेद्य समर्पण के बाद पूजन का मध्यम क्रम आरम्भ होता है जिसमे शप्तशती पाठ एवं अन्य कर्म सम्पादित किये जाते हैं
समापन खंड / अंतिम पूजन खंड :-
- प्रणामाज्जलि / पुष्पांजलि
- नीराजन
- दक्षिणा
- अपराधा क्षमा याचना
- आरती
- आरती आचमन / प्रहर आचमन
नवरात्र व्रत के प्रभाव कि एक कथा है जो मैं आप लोगों से कह रहा हूँ :-
नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था । वह भगवती दुर्गा का भक्त था । उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी । अनाथ प्रतिदिन माता दुर्गा की पूजा और हवन किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी । एक दिन सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई ।
उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री ! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि :-
" मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से अधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है ।"
अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि :-
" जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो । "
सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की । उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की :-
" हे दीन ब्रम्हणी ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो । मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ ।"
इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि :-
" मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ । तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी । एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था । उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था । इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया । हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ । "
ब्राह्यणी बोली की :-
"अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो । "
उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया ।
नवरात्रें कुछ विशेष तथ्य :-
१. नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।
२. नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है
३. माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है
४. नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए।
५. भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।
६. नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।
७ . लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्र मैं पान मैं गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें
नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था । वह भगवती दुर्गा का भक्त था । उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी । अनाथ प्रतिदिन माता दुर्गा की पूजा और हवन किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी । एक दिन सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई ।
उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री ! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि :-
" मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से अधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है ।"
अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि :-
" जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो । "
सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की । उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की :-
" हे दीन ब्रम्हणी ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो । मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ ।"
इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि :-
" मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ । तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी । एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था । उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था । इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया । हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ । "
ब्राह्यणी बोली की :-
"अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो । "
उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया ।
१. नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।
२. नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है
३. माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है
४. नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए।
५. भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।
६. नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।
७ . लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्र मैं पान मैं गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें
माता शैलपुत्री नवरात्र के प्रथम दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है. मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं. पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म लेने से भगवती को शैलपुत्री कहा गया. भगवती का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है. इस स्वरूप का पूजन प्रथम दिन किया जाता है. किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें. कलश पर मूर्ति स्थापित करें. कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनाएं. माता शैलपुत्री के पूजन से मूलाधार चक्र जागृत होता है, जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं.
नवरात्र के दूसरे दिन माता के ब्रह्मचारिणी स्वरुप की पूजा की जाती है. भगवती दुर्गा की नौ शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है. ब्रह्म का अर्थ है, तपस्या, तप का आचरण करने वाली भगवती, जिस कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया, वेदस्तत्वंतपो ब्रह्म, वेद,तत्व और ताप [ब्रह्म] अर्थ है ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है,इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है.
माता ब्रह्मचारिणी की पूजा और साधना करने से कुंडलिनी शक्ति का द्वितीय चक्र जागृत होता है. ऐसा भक्त इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें.
मां ब्रह्मचारिणी की उपासना करने का मंत्र बहुत ही आसान है. मां जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए.
माता के माथे पर घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है, जिस कारण इन्हें चन्द्रघंटा कहा जाता है.
मां चन्द्रघण्टा का वाहन सिंह है जिस पर दस भुजाधारी माता चन्द्रघंटा प्रसन्न मुद्रा में विराजित होती हैं. देवी के इस रूप में दस हाथ और तीन आंखें हैं. आठ हाथों में शस्त्र हैं, तो दो हाथ भक्तों को आशीर्वाद देने की मुद्रा में हैं. देवी के इस रूप की पूजा कांचीपुरम में की जाती है. इनका रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है. इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है, इनके दस हाथ हैं, इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र, बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं. इनका वाहन सिंह है, इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की होती है. इनके घंटे सी भयानक चंडध्वनि से अत्याचारी दानव, दैत्य, राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं.
इस दिन महिलाओं को घर पर बुलाकर आदर सम्मानपूर्वक उन्हें भोजन कराना चाहिए और कलश या मंदिर की घंटी उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान करना चाहिए. इससे भक्त पर सदा भगवती की कृपा दृष्टि बनी रहती है. मां चन्द्रघंटा की पूजा करने के लिए आप निम्न ध्यान मंत्र, स्तोत्र मंत्र का पाठ करें.
मां दुर्गा अपने चतुर्थ स्वरूप में माता कूष्माण्डा के नाम से जानी जाती हैं. चौथे दिन आयु, यश, बल व ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली भगवती कूष्माण्डा की उपासना-आराधना का विधान है
अपनी मंद हंसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें माता कूष्माण्डा के नाम से नामित किया गया है. जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार परिव्याप्त था तब इन्हीं देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी - अत: यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति मानी जाती हैं - इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं - इनकी आठ भुजाएं हैं - अत: ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात हैं - इनके हाथों में क्रमश: :-
- कमण्डल
- धनुष बाण
- कमल
- पुष्प
- अमृतपूर्ण कलश
- चक्र
- गदा
- आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है - इनका वाहन सिंह है.
अपने पांचवें स्वरुप स्कन्दमाता के रुप में भक्तजनों के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहती हैं. कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी स्कन्दमाता की शारदीय नवरात्र में पूजा अर्चना करने का विशेष विधान है - देवी भगवती का यह स्वरूप देवताओं की सेना के मुखिया स्कन्द कुमार (कार्तिकेय) की माता का स्वरूप है, इसलिए उन्हें स्कन्दमाता कहा जाता है.
स्कन्दमाता शेर की सवारी पर विराजमान हैं और उनकी चार भुजाएं हैं.
इन चतुर्भुजी और त्रिनेत्री माता ने अपने दो हाथों में कमलदल लिए हैं और एक हाथ से अपनी गोद में ब्रह्मस्वरूप स्कन्द कुमार को थामा हुआ है. चौथा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में है.
इनका वर्ण पूर्णतः श्वेत है और ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं, जिस कारण माता को पद्मासना देवी भी कहा जाता है
पौराणिक कथानुसार भगवती स्कन्दमाता ही पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती हैं - महादेव की पत्नी होने के कारण माहेश्वरी और अपने गौर वर्ण के कारण गौरी के नाम से भी माता का पूजन किया जाता है - माता को अपने पुत्र से अधिक स्नेह है, और इसी कारण इन्हें इनके पुत्र स्कन्द के नाम से जोड़कर पुकारा जाता है !
षष्टम दिन माता :- कात्यायनी
इस दिन मां कात्यायनी की पूजा-अर्चना की जाती है. महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होकर माता ने आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था
मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं. दुर्गा पूजा के छठे दिन इनके स्वरूप की पूजा की जाती है. इस दिन साधक का मन "आज्ञा चक्र" में स्थित रहता है - यह मां सिंह पर सवार, चार भुजाओं वाली और सुसज्जित आभा मंडल वाली देवी हैं. इनके बाएं हाथ में कमल और तलवार व दाएं हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा है.
मां कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म,काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है. वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है.
नवरात्रि के सातवें दिन मां भगवती के सातवें स्वरूप का आह्वान कर विशिष्ट पूजा अर्चना की जाती है जो कालरात्रि के नाम से विख्यात हैं.
मां कालरात्रि का शरीर का रंग अंधकार की तरह गहरा काला है - इनके केश बिखरे हुए गले में विद्युत सदृश चमकीली माला है - इनके तीन नेत्र हैं - इन तीनों से विद्युत की ज्योति चमकती रहती है - नासिका से श्वास प्रश्वांस छोड़ने पर हजारों अग्नि की ज्वालाएं निकलती रहती हैं - इनका वाहन गदहा है
माता कालरात्रि के ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ में चमकती तलवार है - इनका निचला हाथ वरमुद्रा में है - जिससे भक्तों को अभीष्ट वर देती हैं
बांयें हाथ में जलती हुई मशाल है और नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में होता है - जिससे अपने सेवकों को अभयदान करती हैं और भक्तों को सभी कष्टों से मुक्त करती हैं
नवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की साधक पूजा उपासना करते हैं. सप्तमी तिथि के दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है - इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णत: मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है. इस माता के उपासना से उपासक को अग्नि, भय, जलभय सहित अन्य भय नहीं रहता है तथा ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं
अष्टम दिन माता :- महागौरी
शारदीय नवरात्र का आठवां दिन यानि महाष्टमी है. महाष्टमी के दिन महागौरी की पूजा का विशेष विधान है
मां गौरी को शिव की अर्धागनी और गणेश की माता के रुप में जाना जाता है. महागौरी की शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है - इनकी उपासना से भक्तों को सभी कलुष धुल जाते हैं - पूर्वसंचित एवं पूर्व जन्म ज्ञात - अज्ञात तथा कृत एवं अकृत पाप भी विनष्ट हो जाते हैं.
भगवती महागौरी वृषभ के पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है - अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं - जिनके कानों में रत्नजडित कुण्डल झिलमिलाते हैं - ऐसी भगवती माता महागौरी हैं
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आज के दिन ही अन्नकूट पूजा यानी कन्या पूजन का भी विधान है। कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है - इस पूजन में 9 कन्याओं को भोजन कराया जाता है अगर 9 कन्याएं ना मिले तो ३ /५ /७ जितनी भी उपलब्ध हो सकें उतनी से भी काम चल जाता है - भोजन कराने के बाद कन्याओं को दक्षिणा देनी चाहिए - इस प्रकार महामाया भगवती प्रसन्नता से हमारे मनोरथ पूर्ण करती हैं
मां गौरी को शिव की अर्धागनी और गणेश की माता के रुप में जाना जाता है. महागौरी की शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है - इनकी उपासना से भक्तों को सभी कलुष धुल जाते हैं - पूर्वसंचित एवं पूर्व जन्म ज्ञात - अज्ञात तथा कृत एवं अकृत पाप भी विनष्ट हो जाते हैं.
भगवती महागौरी वृषभ के पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है - अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं - जिनके कानों में रत्नजडित कुण्डल झिलमिलाते हैं - ऐसी भगवती माता महागौरी हैं
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आज के दिन ही अन्नकूट पूजा यानी कन्या पूजन का भी विधान है। कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है - इस पूजन में 9 कन्याओं को भोजन कराया जाता है अगर 9 कन्याएं ना मिले तो ३ /५ /७ जितनी भी उपलब्ध हो सकें उतनी से भी काम चल जाता है - भोजन कराने के बाद कन्याओं को दक्षिणा देनी चाहिए - इस प्रकार महामाया भगवती प्रसन्नता से हमारे मनोरथ पूर्ण करती हैं
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नवम दिन माता :- सिद्धिदात्री
शारदीय नवरात्र का आठवां दिन यानि महाष्टमी है. महाष्टमी के दिन महागौरी की पूजा का विशेष विधान है
मां गौरी को शिव की अर्धागनी और गणेश की माता के रुप में जाना जाता है. महागौरी की शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है - इनकी उपासना से भक्तों को सभी कलुष धुल जाते हैं - पूर्वसंचित एवं पूर्व जन्म ज्ञात - अज्ञात तथा कृत एवं अकृत पाप भी विनष्ट हो जाते हैं.
भगवती महागौरी वृषभ के पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है - अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं - जिनके कानों में रत्नजडित कुण्डल झिलमिलाते हैं - ऐसी भगवती माता महागौरी हैं
आज के दिन ही अन्नकूट पूजा यानी कन्या पूजन का भी विधान है। कुछ लोग नवमी के दिन भी कन्या पूजन करते हैं लेकिन अष्टमी के दिन कन्या पूजन करना श्रेष्ठ रहता है - इस पूजन में 9 कन्याओं को भोजन कराया जाता है अगर 9 कन्याएं ना मिले तो ३ /५ /७ जितनी भी उपलब्ध हो सकें उतनी से भी काम चल जाता है - भोजन कराने के बाद कन्याओं को दक्षिणा देनी चाहिए - इस प्रकार महामाया भगवती प्रसन्नता से हमारे मनोरथ पूर्ण करती हैं
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कन्या पूजन :-
आज के दिन भी कन्या पूजन किया जाता है . आज के दिन नौ कन्याओं को विधिवत तरीके से भोजन कराया जाता है और उन्हें दक्षिणा देकर आशिर्वाद मांगा जाता है - इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है -
कन्या पूजन के कुछ तथ्य :-
१. तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है - त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है.
२. चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है. कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है.
३. पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है. रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है.
४. छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है.
५. सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है.
६. आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है.
७. नौ वर्ष की कन्या दुर्गा की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं.
८. दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कही जाती है. सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं
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जय माता महाकाली
समाप्त
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