मंत्र - यन्त्र और तंत्र एक विवेचन
वस्तुतः मन्त्रों को यदि गहन दृष्टि से देखा जाये तो वास्तव में ये एक निश्चित आवृत्ति कि विशेष प्रार्थना होते हैं जिनमे मुख्यतः प्रणव - बीज मंत्र - इच्छा / आग्रह - प्रणव - समर्पण इत्यादि सम्मिलित होते हैं -!
कई बार मन्त्रों में प्रणव और बीज मन्त्रों का आभाव पाया जाता है ऐसे मंत्र सिर्फ तात्कालिक प्रभावयुक्त होते हैं इन मन्त्रों कि ऊर्जा सार्वभौमिक और सर्वकालिक नहीं होती है -!
चूँकि किसी भी विधा के निर्माण में समय - देश और भाषा का पूर्ण प्रभाव होता है ऐसे दशा में चूँकि मन्त्रों का निर्माण वैदिक काल में हुआ और वैदिक काल आर्य संस्कृति से सम्बद्ध है एवं आर्यों कि मुख्य भाषा संस्कृत थी इसलिए सभी मन्त्रों कि भाषा संस्कृत ही है -!
इसके बाद लोक भाषाओँ में भी मन्त्रों का निर्माण हुआ क्योंकि संस्कृत थोड़ी क्लिष्ट भाषा कि श्रेणी मे आती है और इसके अलावा स्थानीय - या लोक संस्कृतियों में बहुधा शिक्षा का स्तर कम होने के कारण उनके लिए संस्कृत मन्त्रों का पठन - पाठन एवं उच्चारण असम्भवप्राय था -!
जैसा कि मैं पहले ही ऊपर कह चूका हूँ कि " मन्त्रों का मुख्य विषय या उद्देश्य अपनी इच्छा या प्रार्थना को एक विशेष लयबद्ध तरीके से अपने इष्ट के सामने रखने की प्रणाली है "
यदि सामान्य अपवादों को छोड़ दिया जाये तो इंसान आदिकाल से ही अनजान शक्तियों के प्रति संशकित रहा है एवं यही कारन रहा है कि वह उनको प्रसन्न करने या रखने के लिए विविध प्रणालियों का प्रणेता भी रहा है -! इसी क्रम में यदि देखा जाये तो हर प्रकार के मन्त्रों का आविर्भाव हुआ और वे प्रचलन में आते गए -!
चूँकि वैदिक काल में साधनाओं और पठन - पाठन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सिर्फ ब्राह्मण समाज का ही रहा है एवं अन्य सभी समुदायों को उनके लिए बनाये गए स्तरों में बाँध दिया गया - समय गुजरता रहा समाज के लिए जो स्तर कार्य या कार्य विषेशज्ञता के आधार पर बनाया गया था उसका आधार जातिगत होता गया - एवं कुछ समुदायों के द्वारा इस पर एकाधिकार बनाये रखने के लिए कठोर नियमों कि प्रणाली बना गयी एवं निर्धारित कर दिया कि जाती विशेष के लोग इन कार्यों को नहीं करेंगे -!
इंसान मानसिकता होती है कि अपनी मर्जी से वह जैल कि कालकोठरी में भी सुख का अनुभव करता है लेकिन यदि जबर्दस्ती उसे बैठने को कहा जाये तो वह बागी हो जाता है -!
यही वजह रही कि जब उस काल में वेदिक पठन - पाठन एवं धार्मिक कृत्यों पर रोक लगा दी गयी तो प्रतिबंधित जन समुदाय का मन बागी हो उठा और उन्हों ने अपने लिए कथित उच्च वर्ग से अलग देवी देवताओं एवं प्रणालियों कि संरचना कर ली एवं कहीं मानसिक तो कहीं अनुष्ठानिक रूप से वे उसमे संलग्न होने लगे -!
विचारधाराएं और शाखाएं हमेशा विरोधी प्रवृत्तियों को इंगित करती हैं इतर शाखा / मार्ग तभी निर्मित होते है जबकि सामान्य मतों या मान्यताओं में भेद या विरोध परिलक्षित होने लग जाता है -!
आज यदि देखा जाये तो साधनात्मक क्षेत्र में बहुत से मार्ग और शाखाएं नजर आते हैं लेकिन वास्तव में प्रारम्भ में ऐसा नहीं था - इसके अलावा कोई भी साधना या आराधना हमेशा मानसिक संतुष्टि को इंगित करती है - एवं कभी भी दो मानों के बीच शत प्रतिशत समानता सम्भव नहीं हो सकती इसी के परिणामस्वरूप अनेक मार्गों का प्रचलन हुआ जिसमे से स्थानीय या लोक संस्कृतियों कि अपनी अलग धाराएं भी दृश्यमान हुयीं !
जैसे कि :-
वैदिक मंत्र
शाबर मंत्र
जैन मंत्र इत्यादि
२. शाबर मंत्र :- शाबर मन्त्रों के बारे में मान्यता है कि इन मन्त्रों के प्रथम अविष्कारक जंगल में रहने वाले शबर जाती के लोगों द्वारा हुआ - वस्तुतः इन का भी मूल रूप और भावना वही है जो कि वैदिक मन्त्रों में होती है लेकिन या स्थानीय संस्कृति का हिस्सा थे - लेकिन समयकाल में इनका भंडार भी बहुत समृद्ध हुआ एवं अनेक महान ऋषि और मनीषियों ने इनके विस्तार में खूब योगदान दिया वस्तुतः इनके मूल उद्गम का कारण संस्कृत भाषा कि क्लिष्टता और जातिगत प्रतिबन्ध ही थे -!
३. जैन मंत्र :- जैन संप्रदाय वास्तव में प्रारम्भ में मन्त्रों का पक्षधर नहीं था एवं जैन समुदाय में कठिन नियमों तथा परिश्रम पूर्वक साधनाओं में बल दिया जाता था लेकिन जैसा कि इंसान कि मनोवृत्ति होती है कि वह उपलब्ध तकनीकों के आधार पर सरल रास्ते का चयन करना चाहता है न्यूनतम निवेश और उच्चतम प्राप्ति सम्भव हो सके इसलिए समयांतराल में जैन धर्म में भी मन्त्रों का प्रचलन होने लगा - !
इन समस्त शाखाओं के प्रचलन में आने की एक और भी बड़ी वजह थी कि वैदिक मन्त्रों को भगवन शिव के द्वारा कीलित कर दिया जाना एवं बिना गुरु के वैदिक साधनाओं को संपन्न करने कि बाध्यता जैसा कि एक जगह पर भगवान् शिव का एक कथन उद्धृत है " जो भी व्यक्ति बिना गुरु कि आज्ञा के वैदिक मन्त्रों का पठन - पाठन एवं जाप करता वह अपने बल - बुद्धि और आयु का नाश कर बैठता है एवं वह अवश्य ही दंड का भागी है "
सही मार्गदर्शन और उपयुक्त गुरुओं कि अनुपलब्धता भी एक बहुत बड़ा कारक रही है -!
मंत्र :- मंत्र वास्तव में एक या एक से अधिक परम शक्तियों के बीज मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त करने हुए निर्धारित लय के साथ एक निर्धारित आवृत्ति हैं जिसमे ध्वनि के माध्यम से अपने इष्ट से अपना संपर्क जोड़ने कि एवं अपनी बात स्वीकार करवाने कि भावना निहित होती है -!
यन्त्र :- यन्त्र एक चित्रात्मक विधा है जिसमे अपने इष्ट के लिए निहित पूर्वनिर्धारित तरीके से एक चित्र का निर्माण करके एवं मन्त्रों के उच्चारण के साथ यंत्र में प्राणप्रतिष्ठा करके उनकी साधना या अभिहित समस्या के समाधान के मार्ग पर अग्रसर होने कि भावना निहित होती है - तंत्र की संकल्पना वस्तुतः यहीं से प्रारम्भ होती है
तंत्र :- तंत्र उपरोक्त वर्णित दोनों विधाओं का संग्रह है जिसमे मन्त्र एवं यन्त्र का एक समुचित समावेश होता है - लेकिन कई बार देखने को मिलता है कि इसमें किसी एक उपरोक्त विधा ( मंत्र एवं यन्त्र ) में से किसी एक का प्रयोग नहीं भी हो सकता है लेकिन किसी एक अनुष्ठान के लिए प्रयुक्त समस्त सामग्री में कुछ सामग्री मंत्र प्रभाव युक्त होती ही होती है यदि कोई भी व्यक्ति इस बात से इंकार करता है कि उसने तंत्र में मंत्र और यंत्रों का प्रयोग नहीं किया है तो यह तय है कि वह या तो झूठ बोल रहा है या फिर सच बताना नहीं चाहता है -!
इसमें बहुत से माध्यमों का प्रयोग किया जाता है जिसमे वनस्पतियां - चित्रात्मक अभिवक्तियां एवं मन्त्रों तथा अनेक प्रकार के कर्मकांडों का प्रयोग होता है -!
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