Tuesday, 30 August 2016

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 6




यह सुनकर वह स्त्री गदाधर को बांह पकड़कर चंद्रा देवी के पास ले गयी और हँसते हुए सारा वृत्तांत कह सुनाया और यह सुनकर चंद्रा देवी ने मुस्कुराते हुए अति मधुर वचनों से गदाधर को समझाया “ ऐसा करने से तुझे कुछ भी ना होगा किन्तु स्त्रियों का मत है कि यदि स्नान करते हुए उन्हें कोई पुरुष देखता है तो इसे स्त्रियों का अपमान समझा जाता है – उन सबको तो तु मेरी ही तरह अपनी माँ और काकी कहता है तब क्या उनका अपमान मेरा अपमान नहीं हुआ और मेरा गदा ऐसा काम कैसे कर सकता है जिससे अन्य स्त्रियों अथवा मेरा अपमान हो”?

और यह बात गदाधर के बाल मन में बैठ गयी एवं इसके उपरांत फिर गदाधर ने पुनः वैसा कार्य नहीं किया .

पाठशाला में गदाधर की शिक्षा-दीक्षा बहुत बढ़िया चल रही थी और अपनी कुशाग्र बुद्धि से वह सब कुछ आसानी से समझ लेता था किन्तु गणित विषय से उसे घृणा सी थी और गिनती एवं अन्य गणितीय विषय उसकी समझ से परे थे साथ ही नूतन बातें और विषय उसे बहुत रुचिकर लगते थे वह प्रायः कुम्हारों को मूर्तियाँ बनाते हुए बड़ी तन्मयता से देखता था और घर आकर वैसी ही मूर्तियाँ बनाने की चेष्टा करता और उन्हें सुन्दरता के साथ बना भी लेता था .

ज्यों-ज्यों गदाधर बड़ा हो रहा था उसका मन भक्ति और आध्यात्म की ओर झुकाव हो रहा था उसे भगवत कथाओं और पुराणों आदि की कथा सुनने में विशेष आनंद आता था .

गदाधर बचपन से ही निडर और साहसी था एक बार की बात है उसकी बुआ रामशीला घर आई हुयी थीं और प्रचलित किवदंतियों के अनुसार वह पूरा ही परिवार शीतला माता का अनन्य भक्त था और रामशीला पर शीतला माता का संचार भी हुआ करता था और उस दिन उनके शरीर में शीतला देवी का संचार हुआ और उस दशा में उनका हट-पैर पटकना और बडबडाना देखकर घर के सारे लोग परेशान थे किन्तु गदाधर पास जाकर उनका निरीक्षण कर रहा था बाद में चंद्रा देवी से कहने लगा “बुआ के शरीर में जो देवी आई थी वही मेरे भी शरीर में आये तो फिर बहुत मजा आए”

भूरसुबो के माणिकराजा खुदीराम जी की धर्म परायणता से उन पर बहुत श्रद्धा रखते थे और उन्हें बारम्बार अपने यहाँ बुलाया करते थे, गदाधर जब छठवें वर्ष में पहुंचा तब खुदीराम जी उसे लेकर उनके वहां गए थे वहां गदाधर का मेलजोल और बर्ताव देखकर कोई यह कह ही नहीं सकता था कि यह बालक इस घर में प्रथम बार आया है और अपरिचित है.

माणिकराजा के भाई रामजय बालक को देखकर मुग्ध से हो गए थे और उन्होंने खुदीराम जी से कहा “तुम्हारा यह पुत्र बिल्कुल भी साधारण व्यक्ति नहीं है यह कोई देव अंश प्रतीत होता है, जब भी इस तरफ आया करो इसे साथ में जरुर लाया करो इसे देखकर मन बहुत आनंदित होता है”

माणिकराजा को भी शायद चैन नहीं मिल रहा था अस्तु जब काफी दिन तक खुदीराम जी का उनकी तरफ जाना नहीं हो सका तो उन्होंने ने खुद ही एक महिला को खुदीराम जी के घर भेज दिया कि वह गदाधर को अपने साथ ले आवे .

पिता कि अनुमति लेकर गदाधर उस महिला के साथ माणिक राजा के यहाँ पहुँच गया और पूरा दिन वहीँ रहकर साँझ अलंकार और मिठाई की भेंट लेकर कामारपुकुर वापस आया .

गदाधर अब सातवें वर्ष में प्रवेश कर चुका था और अपनी सरल,विनोदी और मिलनसारिता की वजह से सभी अडोस-पड़ोस के लोगों को खास तौर पर स्त्रियों का चहेता हो गया था, पड़ोस की स्त्रियों के घर में यदि कोई विशेष भोजन या मिष्ठान आदि बनता तो वे उसमे से गदाधर का हिस्सा अलग करके रख लेती थीं और समय मिलते ही जाकर उसे बड़े वात्सल्य भाव से खिलाकर स्वयं तृप्त महसूस करती थीं .

इसी प्रकार उसके मित्र भी यदि उनके घर में कुछ विशेष बनता था तो अपने भाग में से गदाधर के लिए बचाकर रख लेते थे और मिलते ही उसे बड़े चाव से खिलाते थे .

सबका चहेता होने की वजह से गदाधर का स्वास्थ्य आरम्भ से ही बहुत उत्तम और सुगठित था किन्तु उसकी स्वाभाविक एकाग्रचित्तता और किसी विषय में पूर्ण रूप से डूब जाने की प्रवृत्ति की वजह से इतना तन्मय हो जाता था कि उसे अपने शरीर की सुधि भी ना रह जाती थी .

एक बार गदाधर खेतों के मेड़ों से गुजर रहा था और आसमान में काले बादल जैसे उमड़ने लगे थे साथ ही धवल बगुले मानों किलोल कर रहे थे और इस भावात्मक प्रतिबिम्ब में गदाधर इतना डूब गया कि उसे मूर्छा आ गयी और वह वहीँ मेड पर गिर गया बहुत शुश्रूषा के बाद होश आया तो घर वालों को ये डर सताने लगा कि कहीं यह मूर्छा स्थायी बीमारी बनकर ना रह जाये अस्तु तरह-तरह के औषधि और शांति प्रयोग कराये जाने लगे .

जबकि गदाधर का कहना था कि “मुझे आयी मूर्छा किसी रोग वश नहीं थी बल्कि मुझे उस समय अत्यधिक आनंद की अनुभूति हो रही थी और मेरा मन उस दृश्य में स्थिर हो गया था”

1843 के शारदीय दुर्गा पूजन का समय आ पहुंचा था, खुदीराम जी के भांजे राम चाँद जी प्रायः वर्ष भर मेदिनीपुर में रहते थे लेकिन दुर्गोत्सव के समय अपने पैतृक गांव सेलामपुर में बड़े धूम-धाम से मनाया करते थे और उत्सव में खुदीराम जी भी पहुँचते थे और इस बार भी उन्हें निमंत्रण मिला था .

खुदीराम जी की आयु लगभग अब ६८ वर्ष पहुँच चुकी थी और इस वर्ष में लगातार संग्रहणी की वजह से उन्हें बहुत समस्या और कमजोरी का सामना करना पड़ रहा था और इसी वजह से वे कशमकश में थे कि उन्हें उत्सव में सम्मिलित होना चाहिए या नहीं फिर यह सोचकर कि अब तो जीवन का वह भाग शुरू हो चुका है जब आज है तो कल देखने को मिलेगा या नहीं इसी विचार से उन्होंने उत्सव में सम्मिलित होने का मन बना लिया .

सेलामपुर पहुँचते ही उनका संग्रहणी रोग पुनः उभर गया और वे शिथिल होने लगे हालाँकि राम चाँद ने यथा उपयुक्त उपचार आरम्भ करवा दिया किन्तु रोग था कि शांत होने की जगह और उफान पर लग्ने लगा और इसी तरह अष्टमी तक के दिन बीते लेकिन नवमी के दिन उनका रोग इतना बढ़ गया कि सभी लोगों ने पूरी रात आँखों ही आँखों में काट दी और खुदीराम जी के मुख से आवाज निकलनी भी बंद हो गयी – सबको इस बात का आभास हो चला था कि बस अब अंतिम काल है और किसी भी समय आत्मा परमात्मा से मिलन के लिए निकल सकती है, खुदीराम जी की यह हालत देखकर राम चाँद की आँखे छलछला आयीं और ह्रदय में हुक सी उठ रही थी भावावेश में वे बोल उठे “मामा आप तो सदैव रघुवीर-रघुवीर जपा करते हो फिर आज क्या हुआ जो ऐसे पड़े हो और रघुवीर को भी नहीं भज रहे हो” रघुवीर सुनते ही खुदीराम जी में प्राणों का मानो संचार हुआ और धीमे कांपते हुए स्वर में पूछा “कौन राम चाँद ? प्रतिमा विसर्जन हो गया क्या ?

अच्छा ठीक है अगर सब कार्य सम्पूर्ण हुआ तो मुझे जरा सहारा देकर एक बार उठाकर बिठाओ तो !”

और यह सुनकर जब सभी ने मिलकर उन्हें उठाकर बिठाया तो बड़े गंभीर स्वर में उन्होंने तीन बार ‘रघुवीर’ उच्चारण किया और बस दीपक बुझ गया, दुल्हन अपने पिया से मिलने कि बेकरारी में सब कुछ छोड़ छाड़ कर विदा हुयी .

खुदीराम जी के सिधारते ही चंद्रा देवी का मन विरक्ति भाव से भर उठा लेकिन छलिनी माया भला किसी को ऐसे बख्शती है क्या ?

कुछ ही दिनों में गदाधर की चंचलताओं और चार वर्षीय सर्वमंगला के रूप में मोहपाश फिर फ़ैल गया .

रामकुमार परिवार के ज्येष्ठ पुत्र थे और अब परिवार की समस्त जिम्मेदारी उनके ही कन्धों पर आ गयी थी .


क्रमशः ..............................



माता महाकाली शरणम्

Friday, 26 August 2016

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 5






इस अचानक घटित घटना ने धनी को बड़े विस्मय में डाल दिया और भय भी हुआ अस्तु उसने तुरंत दीपक कि बत्ती बढाई जिससे प्रकाश अधिक हो और दृष्टि स्पष्ट हो जब प्रकाश की मात्रा बढ़ गयी तो धनी देखती है कि बालक नाल सहित धान सिझाने वाले चूल्हे के पास पड़ा है और बालक के सम्पूर्ण शरीर पर राख ही राख है .

जल्दी से धनी ने बालक को उठाकर जब पोछा तो देखा कि बालक का रूप अति मनभावन और डील-डौल किसी छः महीने के बालक जैसा है, धनी को फिर आश्चर्य हुआ और उसने पड़ोस कि अन्य महिलाओं को बुलाकर सारा वृत्तांत उन्हें कह सुनाया .

बालक के जन्म के उपरांत खुदीराम जी ने विज्ञ पंडितों से बालक की कुंडली बनवाई (शकाब्द १९५७ (दिनांक १७ फरवरी १८३६) फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि बुधवार को आधी घडी रात्रि शेष) में बालक का जन्म हुआ था जिसके लिए भ्रगु संहिता में उद्धृत पाया जाता है .

धर्म स्थानाधिपे तुंगे धर्मस्थे तुंगखेचरे

गुरुणा दृष्टिसंयोगे लग्नेशे धर्मसंस्थिते

केन्द्रस्थानगते सौम्ये गुरौ चैव तु कोणभे

स्थिरलग्ने यदा जन्म संप्रदायप्रभुर्हि सः

धर्मविन्माननीयस्तु पुण्यकर्मरतः सदा

देवमंदिरवासी च बहुशिष्यसमन्वितः

महापुरुषसंज्ञोअयम नारायणांशसंभवः

सर्वत्र जन्पुज्यश्च भविष्यति न शंसयः

यह सब ज्ञात होने पर खुदीराम जी को अति हर्ष हुआ और उन्हें निश्चित हुआ कि यह पुत्र निश्चय ही गदाधर कि असीम कृपा का परिणाम है अस्तु उन्होंने बालक का नाम गदाधर ही रखा .

यह सर्व विदित है एवं पुराणों में भी उद्धृत है कि जब भी इस धरा पर किसी देवांश या अवतार का आगमन हुआ है तो भरपूर दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं और उन्हें यह विदित भी होता है कि यह बालक कोई सामान्य व्यक्ति या आत्मा नहीं किन्तु छलिया माया तदुपरांत भी उन्हें छलने से नहीं चूकती और वह स्मरण-विस्मरण के सागर में गोते लगाते रहते हैं, यही हाल खुदीराम जी का और उनकी धर्मपत्नी का भी था .

जब यह सुचना खुदीराम जी के भांजे रामचाँद जो कि मेदिनीपुर में रहते थे ज्ञात हुआ तो उन्होंने मामा कि निर्धन स्थिति का ख्याल करते हुए एक अति दुधारू प्रकृति कि गाय मामा के घर भिजवा दी जिससे बालक का उचित पालन-पोषण हो सके .

इधर बालक गदाधर ज्यों-ज्यों बड़ा होता जा रहा था उसकी आकर्षण शक्ति का उत्तरोत्तर विकास हो रहा था जिससे मोहल्ले का कोई भी जीव और स्त्रियाँ का प्रिय भाजन बनता जा रहा था .

अब मोहल्ले कि प्रायः सभी स्त्रियाँ किसी ना किसी बहाने से चंद्रा देवी के पुत्र के मुख कमल को देखने हेतु किसी ना किसी बहाने से आ जाती थीं और फिर कुछ समय पश्चात् तृप्त होकर वापस जाती थीं .

समय बीतता रहा और बालक पांच माह का हुआ और अब अन्नप्राशन कि रस्म का समय हुआ धनाभाव होने की वजह से खुदीराम जी ने निर्णय लिया कि अन्नप्राशन के समय शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण कृत्य निर्वहन करके श्री रघुवीर जी के प्रसाद से संस्कार पूर्ण करके दो या चार निकटस्थ आत्मीय जनों को भोज आदि करवा देंगे किन्तु गाँव के ब्राह्मणों ने कहा कि अन्नप्राशन के दिन सभी द्विजों के भोजन का आयोजन किया जाये यह बड़े धर्मसंकट की घड़ी थी इतना धन और व्यवस्था कोई हंसी-खेल थोड़ी था, यह बात जब गाँव के जमीदार धर्मदास लाहा को पता चली तो उन्होंने सारा कार्यभार स्वयं वहन कर लिया और सभी को भोजन करवाकर समस्त कार्य सम्पन्न करवाया .

गदाधर ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगा अपनी बाल-सुलभ लीलाओं और चंचलता से सबका प्रिय होने लगा जबकि चंद्रा देवी अब अपने पुत्र कि कल्याण कामना से और भी अधिक धार्मिक क्रियाओं और मान-मनौतियों में संलग्न रहने लगीं .

एक दिन कि घटना है जबकि गदाधर सात या आठ महीने का होगा तब प्रातः काल चंद्रा देवी पुत्र को दूध पिलाकर सुला दिया और घर-गृहस्थी की दिनचर्या में संलग्न हुयीं और थोड़ी देर उपरांत जब वापस लौट कर देखती हैं तो अचरज कि सीमा नहीं थी, जिस बिस्तर पर गदाधर को सुला गयी थीं वहां पर गदाधर की जगह कोई अन्य विशालकाय देव पुरुष लेटा हुआ है और यह देख चंद्रा देवी बहुत डर गयीं और भागी-भागी पति के पास पहुंची और उन्हें सारा वृत्तांत कह सुनाया, यह सुनकर जब खुदीराम जी पत्नी के साथ वहां पहुंचे तो देखते हैं कि गदाधर ज्यों का त्यों बिस्तर पर सोया पड़ा है .

खुदीराम जी ने पत्नी को बहुत समझाया लेकिन उनका डर शांत नहीं हुआ तब खुदीराम जी ने कहा कि तुम किसी पंडित को बुलाकर शांति कर्म करवाने की सलाह दी जिससे इस तरह की घटनाएँ ना हों .

इसके बाद शांति कर्म करवाकर भी पुत्र मंगल की कामना से चंद्रा देवी ने ज्ञात सभी देवी-देवताओं के समक्ष पुत्र मंगल की कामना से ढेरों मान मनव्वल कीं.

समय अपनी गति से चलता रहा और १८३९ में चंद्रा देवी ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम सर्व मंगला रखा गया इसके अतिरिक्त कोई अन्य उल्लेखनीय वृत्तांत इस काल में घटित नहीं हुआ .

जब गदाधर कि उम्र प्रायः ५ या ६ साल के आस-पास हो गयी तब उसकी अलौकिक बुद्धि और विषय ग्रहण क्षमता के प्रमाण परिलक्षित होने लगे बालक जो भी सुनता वह तुरंत ही कंठस्थ कर लेता था और पूछने पर यथावत कह सुनाता था साथ ही बाल सुलभ चंचलता एवं उपद्रव के गुण भी गदाधर में सामान्य बालकों की अपेक्षा कुछ अधिक ही परिलक्षित होते थे .

साथ ही खुदीराम जी ने गदाधर को अब अक्षर ज्ञान और गिनती आदि से परिचय करवाना आरम्भ कर दिया था किन्तु गदाधर को गिनती एवं पहाड़ों में रूचि ना के बराबर ही थी, खुदीराम जी यह सोचकर उसे पहाड़े रटाना बंद कर देते थे कि आगे चलकर सीख लेगा .

जब गदाधर के उपद्रव बहुत अधिक बढ़ने लगे तब खुदीराम जी ने उसे पाठशाळा में भर्ती करवाने का निर्णय लिया, गदाधर को भी यह बहुत रुचिकर लगता था क्योंकि घर से निकलकर अब उसे अनेक मित्र मिल गए थे जिनके साथ खेलने का अवसर मिल रहा था .

गदाधर जिस पाठ शाला में पढने जाता था वह धर्मदास लाहा बाबु के घर के सामने ही थी और उसका समस्त व्यय लाहा बाबु ही वहन करते थे पाठ शाला दिन में दो बार संचालित होती थी एक बार सुबह और दूसरी बार दिन के तीसरे प्रहर में .

गदाधर के उपद्रवों और शैतानियों का आनंद सभी लेते थे और उसके उपद्रवों पर खुदीराम जी उसे बहुत प्रेमपूर्वक समझाते थे किन्तु गदाधर के अन्दर इस उम्र में ही जिस तार्किकता का विकास हो रहा था और वह किसी बात की तह तक के सवाल पूछता था यह बात कई बार खुदीराम जी को परेशान करती थी क्योंकि उसके प्रश्नों के उत्तर यदि उसे संतोषजनक नहीं मिलते थे तब वह मनमाना आचरण करता था और खुदीराम जी प्रायः सोच में रहते थे कि तार्किकता वैसे तो अच्छी चीज है लेकिन सामान्य जीवन में बहुत बार बातें तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं तब भी उनका पालन समाज और देश-काल के अनुसार व्यक्ति को करना पड़ता है .

प्रायः गदाधर पाठशाला से गायब रहकर किसी भजन या नाटक आयोजन में चला जाता था किन्तु यदि उससे कारण पूछा जाता था तो वह कभी असत्य नहीं बोलता था और सारी बात यथावत बता देता था .

तार्किकता और बातों कि तह तक जाने के सन्दर्भ में एक घटना उल्लेखनीय है जिसका विवरण दिया जा रहा है:

गदाधर के घर के नजदीक ही हाल्दारपुकुर नाम का एक वृहद तालाब था जिसमें गाँव के सभी नर-नारी स्नान किया करते थे इसमें दो घाट बने हुए थे, जिसमे से एक में पुरुष नहाते थे और दुसरे में स्त्रियों के नहाने की व्यवस्था थी किन्तु छोटे बालक किसी भी घाट पर नहाने लगते थे और इसी क्रम में गदाधर अपने मित्रों के साथ एक दिन स्त्रियों के घाट पर स्नान कर रहा था और सभी एक-दुसरे पर पानी उछाल रहे थे और उनकी इन हरकतों से स्त्रियों को असुविधा महसूस हो रही थी और इसी वजह से किसी स्त्री ने क्रोध में आकर कहा “क्यों रे छोकरों तुम्हे पुरुषों के घाट पर नहाना चाहिए था, तुम लोग यहाँ स्त्रियों के घाट पर क्यों उपद्रव मचा रहे हो ?

क्या तुम्हे ज्ञात नहीं कि स्त्रियों को निर्वस्त्र नहीं देखना चाहिए” ?

इस पर गदाधर ने तपाक से पूछा “ क्यों नहीं देखना चाहिए स्त्रियों को विवस्त्र “?

अब उस स्त्री के पास इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था और अपने निरुत्तर होने कि वजह से उसका क्रोध भी और अधिक बढ़ गया इस दशा में गदाधर ने अंदाजा लगाया कि अब निश्चय ही ये स्त्रियाँ घर जाकर शिकायत करेंगी और जब अपने मित्रों को यह बताया तो वे सब डर के मारे भाग खड़े हुए किन्तु गदाधर ने कुछ और ही विचार कर तीन दिवस तक लगातार स्त्रियों के घाट पर जाता और एक पेड़ की ओट से सभी स्त्रियों को नहाते हुए देखा करता और फिर अगले दिन उसी महिला से जो प्रथम गदाधर पर क्रुद्ध हुयी थी इस प्रकार कहा :

“काकी मैंने परसों चार स्त्रियों को नहाते हुए देखा और फिर कल भी स्त्रियों को नहाते हुए देखा एवं आज पुनः कई स्त्रियों को नहाते हुए देखा किन्तु मुझे कुछ भी ना हुआ, स्त्रियों को कुछ हुआ होगा क्या”?



यह सुनकर वह स्त्री गदाधर को बांह पकड़कर चंद्रा देवी के पास ले गयी और हँसते हुए सारा वृत्तांत कह सुनाया और यह सुनकर चंद्रा देवी ने मुस्कुराते हुए अति मधुर वचनों से गदाधर को समझाया “ ऐसा करने से तुझे कुछ भी ना होगा किन्तु स्त्रियों का मत है कि यदि स्नान करते हुए उन्हें कोई पुरुष देखता है तो इसे स्त्रियों का अपमान समझा जाता है – उन सबको तो तु मेरी ही तरह अपनी माँ और काकी कहता है तब क्या उनका अपमान मेरा अपमान नहीं हुआ और मेरा गदा ऐसा काम कैसे कर सकता है जिससे अन्य स्त्रियों अथवा मेरा अपमान हो”?




क्रमशः ..............................



माता महाकाली शरणम्

Wednesday, 3 August 2016

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 4



इस स्वप्न के पश्चात् अचानक उनकी नींद खुल गयी लेकिन बहुत देर तक मतिभ्रम सी उनकी हालत रही वे यही निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि वे हैं कहाँ बहुत देर पश्चात् बोध होने पर उनका मन गदगद हो उठा और भोरकालीन स्वप्न को सत्य की नाईं समझ उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा ।

इसके पश्चात् कुछ समय वहीँ गया में बिताकर वे पुनः कामारपुकुर के लिए लौट पड़े ।

एक महापुरुष के अवतार की नींव पड़ चुकी थी और समय के गर्त से चिंगारियां प्रज्ज्वलित हो चुकी थीं इतनी महान घटना घटित होने वाली थी अस्तु कुछ आभास और परिवर्तन चंद्रा देवी में भी परिलक्षित होने ही थे ।

आइये थोडा विवेचन करें और जानने की कोशिश करें कि उनके जीवन में किस प्रकार के अनुभव हुए ।

खुदीराम जब वापस आये तो उन्हें घटित घटनाओं का ब्यौरा देते हुए वे कहती हैं कि " जब तुम गया गए थे तो एक रात मुझे अद्भुत स्वप्न दिखा, जिसमे एक दिव्य पुरुष मेरी शय्या पर सुप्त दिखा मुझे - सत्य कहती हूँ ऐसा दिव्य रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था - इतने में मेरी नींद खुल गयी - नींद खुलने के बाद देखती हूँ तो अभी भी वह शय्या पर ही सोया हुआ है -देखकर मुझे बड़ा डर लगा।

सोचा कि कोई दुष्ट व्यक्ति समय पाकर शायद घर में घुस आया होगा ऐसा विचारकर जब मैंने दीपक जलाया और प्रकाश में देखा तो कहीं कुछ नहीं जबकि अँधेरे में दप-दप करता हुआ दिख रहा था - किवाड़ भी बंद हैं - कुण्डी भी लगी हुयी थी - उसके बाद रात भर फिर मुझे नींद नहीं आयी"

"सबेरा होते ही धनी लुहारिन और धर्मदास की बेटी प्रसन्न को बुलवाकर और उन्हें रात की बात बताई और पूछा कि क्या ऐसा हो सकता है ?

यह सुनकर वे दोनों हँसने लगीं और कहने लगीं कि- तुम बुढ़ापे में पागल हो गयी हो - स्वप्न की बात से कैसा डर ?
किसी और को मत बोलना वरना लोग क्या कहेंगे ?
बदनामी होगी सो अलग "।

लोक लाज के बारे में सोचकर फिर यह बात मैंने किसी और से नहीं कही ।

और फिर एक दिन धनी के साथ कुछ बात करने के लिए मैं अपने घर के सामने के शिव मंदिर के सामने खड़ी थी कि क्या देखती हूँ " महादेव की मूर्ति से एक दिव्य ज्योति निकल रही है और वह पुरे मंदिर में भर गयी इसके बाद तरंगें सी बनकर मेरी तरफ भागी चली आ रही हैं । ऐसा महसूस होते ही मैंने धनी को दिखाना ही चाहा कि वे तरंगे मुझ तक पहुँच गयीं और मेरे शरीर में प्रवेश कर गयीं । इस बात से मुझे इतना भय हुआ कि मैं वहीँ मूर्च्छा खा गयी ।
तब धनी ने पानी के छींटे मार मार मुझे होश दिलाया - फिर जब मूर्च्छा समाप्त होते ही मैंने उसे सारी बात बताई तो उसे बड़ा अचरज हुआ और उसने कहा कि तुझे वात या वायुविकार हो गया है जिस वजह से बहकी-बहकी बात कर रही है । चल आराम कर ।

पर सत्य कहती हूँ कि उस दिन से मुझे लग रहा है कि मुझमे गर्भ ठहर गया है जैसे ही वह ज्योति मुझमे समायी ।

यह शंका मैंने धनी और प्रसन्न को भी जताई तो उन्होंने बहुत बुरा-भला कहा मुझे और कहा कि तू सचमुच बीमार हो गयी है तुझे वहम के अलावा और कोई बात नहीं ।

सच कहो रामकुमार के पिता " मुझे वायुरोग हो गया है क्या "?

लेकिन मुझे तो यही लग रहा है कि जैसे मुझे गर्भ ठहर गया है ।

यह सुन खुदीराम जी को अपने स्वप्न का स्मरण हो आया जो उन्होंने गया प्रवास के दौरान देखा था तब उन्होंने कहा " नहीं चंद्रा तुम्हे भ्रम नहीं हुआ है - तुम पर सच में देवता की कृपा हुयी है - परंतु अब आगे से यदि तुम्हे कुछ ऐसा दिखे या आभास हो तो मेरे अतिरिक्त किसी से भी मत कहना "।

यह सब सुन चंद्रा देवी बहुत पुलकित हुयीं और उन्हें विश्वास हुआ कि उन्हें वायु रोग नहीं हुआ है । लगभग तीन या चार मास बाद निश्चित हो गया कि पैंतालीस वर्ष की अवस्था में वे सचमुच गर्भवती हुयी हैं ।

इस बारे में जानकारों का कथन था कि उस समय काल में चंद्रा देवी का रूप दिव्य आभा लिए हुए दिखता था और ऐसा लगता था कि प्रकाश रश्मियाँ सी फूटी पड़ती हैं उनकी देह से - कुछ लोग तो यहाँ तक कहती थीं कि " बुढ़ापे में गर्भ धारण होने पर शरीर में इतना तेज आना दुर्भाग्य की निशानी है और निश्चित ही प्रसव काल में यह मृत्यु का ग्रास बनेगी"

गर्भावस्था के काल में उन्हें अब नित नए आभास और दिव्य दर्शन होने लगे थे - देवी देवताओं में और भी उनकी प्रीत बढ़ने लगी थी उन्हें सभी देवता पुत्रवत् प्रतीत होते थे ।

इसके बारे में वे प्रायः खुदीराम जी से चर्चा करतीं कभी भय का प्रदर्शन भी करतीं और खुदीराम जी उन्हें नाना प्रकार के समझाते और सांत्वना देते रहते थे ।

एक दिन उन्होंने बताया कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि " कोई देवता हंस पर बैठकर आ रहा था - उसे देखकर मुझे थोडा भय प्रतीत हुआ किंतु धुप थी और उसकी वजह से उसका पूरा चेहरा लाल हुआ पड़ा था इसलिए मुझे दया भी आई और मैं उसे पुकारकर बुलाने लगी कि वो हंस वाले देवता - देख तो धुप की गर्मी से तेरा पूरा चेहरा लाल हो गया है । आ जा - घर में कुछ भीगा हुआ चावल है - अगर खाना हो तो ला दूँ उसे खाकर थोडा सुस्ता ले फिर चले जाना ।

यह सुनकर वह हंसने लगा और हवा में ही अचानक लुप्त हो गया ।

ऐसे एक या दो नहीं हर रोज ही अलग अलग देखती हूँ - भला किन किन का वर्णन करूँ क्योंकि मैं तो उनके नाम भी नहीं जानती और पहले कभी देखा भी नहीं है ।"
इस प्रकार लीलाओं के चलते और दिव्य अनुभूतियों के साथ वह घडी आ ही पहुंची जब एक दिव्य महापुरुष का जन्म हुआ और एक नया युग आरम्भ हुआ जो कि भक्ति और समर्पण के मामले में अद्वितीय है आज तक ।

तत्कालीन निर्मित जन्म कुंडली के आधार पर शकाब्द 1757 (17 फरवरी 1836) फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि दिन बुधवार को आधी घडी रात) -पूर्वभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम चरण (कुम्भ लग्न के प्रथम नवमांश सूर्योदय से इष्टकाल 51 घटिका 28 पल ) में इस महापुरुष का जन्म हुआ ।


जन्मोपरांत की एक अन्य कथा का विवरण कहीं-कहीं प्राप्त होता है जो अग्र प्रकार है :


चंद्रा देवी को प्रसव पीड़ा हो रही थी और धनी लुहारिन उनके साथ थी - बच्चे के जन्म के उपरांत जैसे ही बच्चे की नाल काटने की तैयारी की तो यह देखकर हतप्रभ रह गयीं कि जिस स्थान पर बच्चे को रखा हुआ था वहां बच्चा है ही नहीं !





क्रमशः ..............................





माता महाकाली शरणम्