स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 4
इसके पश्चात् कुछ समय वहीँ गया में बिताकर वे पुनः कामारपुकुर के लिए लौट पड़े ।
एक महापुरुष के अवतार की नींव पड़ चुकी थी और समय के गर्त से चिंगारियां प्रज्ज्वलित हो चुकी थीं इतनी महान घटना घटित होने वाली थी अस्तु कुछ आभास और परिवर्तन चंद्रा देवी में भी परिलक्षित होने ही थे ।
आइये थोडा विवेचन करें और जानने की कोशिश करें कि उनके जीवन में किस प्रकार के अनुभव हुए ।
खुदीराम जब वापस आये तो उन्हें घटित घटनाओं का ब्यौरा देते हुए वे कहती हैं कि " जब तुम गया गए थे तो एक रात मुझे अद्भुत स्वप्न दिखा, जिसमे एक दिव्य पुरुष मेरी शय्या पर सुप्त दिखा मुझे - सत्य कहती हूँ ऐसा दिव्य रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था - इतने में मेरी नींद खुल गयी - नींद खुलने के बाद देखती हूँ तो अभी भी वह शय्या पर ही सोया हुआ है -देखकर मुझे बड़ा डर लगा।
सोचा कि कोई दुष्ट व्यक्ति समय पाकर शायद घर में घुस आया होगा ऐसा विचारकर जब मैंने दीपक जलाया और प्रकाश में देखा तो कहीं कुछ नहीं जबकि अँधेरे में दप-दप करता हुआ दिख रहा था - किवाड़ भी बंद हैं - कुण्डी भी लगी हुयी थी - उसके बाद रात भर फिर मुझे नींद नहीं आयी"
"सबेरा होते ही धनी लुहारिन और धर्मदास की बेटी प्रसन्न को बुलवाकर और उन्हें रात की बात बताई और पूछा कि क्या ऐसा हो सकता है ?
यह सुनकर वे दोनों हँसने लगीं और कहने लगीं कि- तुम बुढ़ापे में पागल हो गयी हो - स्वप्न की बात से कैसा डर ?
किसी और को मत बोलना वरना लोग क्या कहेंगे ?
बदनामी होगी सो अलग "।
लोक लाज के बारे में सोचकर फिर यह बात मैंने किसी और से नहीं कही ।
और फिर एक दिन धनी के साथ कुछ बात करने के लिए मैं अपने घर के सामने के शिव मंदिर के सामने खड़ी थी कि क्या देखती हूँ " महादेव की मूर्ति से एक दिव्य ज्योति निकल रही है और वह पुरे मंदिर में भर गयी इसके बाद तरंगें सी बनकर मेरी तरफ भागी चली आ रही हैं । ऐसा महसूस होते ही मैंने धनी को दिखाना ही चाहा कि वे तरंगे मुझ तक पहुँच गयीं और मेरे शरीर में प्रवेश कर गयीं । इस बात से मुझे इतना भय हुआ कि मैं वहीँ मूर्च्छा खा गयी ।
तब धनी ने पानी के छींटे मार मार मुझे होश दिलाया - फिर जब मूर्च्छा समाप्त होते ही मैंने उसे सारी बात बताई तो उसे बड़ा अचरज हुआ और उसने कहा कि तुझे वात या वायुविकार हो गया है जिस वजह से बहकी-बहकी बात कर रही है । चल आराम कर ।
पर सत्य कहती हूँ कि उस दिन से मुझे लग रहा है कि मुझमे गर्भ ठहर गया है जैसे ही वह ज्योति मुझमे समायी ।
यह शंका मैंने धनी और प्रसन्न को भी जताई तो उन्होंने बहुत बुरा-भला कहा मुझे और कहा कि तू सचमुच बीमार हो गयी है तुझे वहम के अलावा और कोई बात नहीं ।
सच कहो रामकुमार के पिता " मुझे वायुरोग हो गया है क्या "?
लेकिन मुझे तो यही लग रहा है कि जैसे मुझे गर्भ ठहर गया है ।
यह सुन खुदीराम जी को अपने स्वप्न का स्मरण हो आया जो उन्होंने गया प्रवास के दौरान देखा था तब उन्होंने कहा " नहीं चंद्रा तुम्हे भ्रम नहीं हुआ है - तुम पर सच में देवता की कृपा हुयी है - परंतु अब आगे से यदि तुम्हे कुछ ऐसा दिखे या आभास हो तो मेरे अतिरिक्त किसी से भी मत कहना "।
यह सब सुन चंद्रा देवी बहुत पुलकित हुयीं और उन्हें विश्वास हुआ कि उन्हें वायु रोग नहीं हुआ है । लगभग तीन या चार मास बाद निश्चित हो गया कि पैंतालीस वर्ष की अवस्था में वे सचमुच गर्भवती हुयी हैं ।
इस बारे में जानकारों का कथन था कि उस समय काल में चंद्रा देवी का रूप दिव्य आभा लिए हुए दिखता था और ऐसा लगता था कि प्रकाश रश्मियाँ सी फूटी पड़ती हैं उनकी देह से - कुछ लोग तो यहाँ तक कहती थीं कि " बुढ़ापे में गर्भ धारण होने पर शरीर में इतना तेज आना दुर्भाग्य की निशानी है और निश्चित ही प्रसव काल में यह मृत्यु का ग्रास बनेगी"
गर्भावस्था के काल में उन्हें अब नित नए आभास और दिव्य दर्शन होने लगे थे - देवी देवताओं में और भी उनकी प्रीत बढ़ने लगी थी उन्हें सभी देवता पुत्रवत् प्रतीत होते थे ।
इसके बारे में वे प्रायः खुदीराम जी से चर्चा करतीं कभी भय का प्रदर्शन भी करतीं और खुदीराम जी उन्हें नाना प्रकार के समझाते और सांत्वना देते रहते थे ।
एक दिन उन्होंने बताया कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि " कोई देवता हंस पर बैठकर आ रहा था - उसे देखकर मुझे थोडा भय प्रतीत हुआ किंतु धुप थी और उसकी वजह से उसका पूरा चेहरा लाल हुआ पड़ा था इसलिए मुझे दया भी आई और मैं उसे पुकारकर बुलाने लगी कि वो हंस वाले देवता - देख तो धुप की गर्मी से तेरा पूरा चेहरा लाल हो गया है । आ जा - घर में कुछ भीगा हुआ चावल है - अगर खाना हो तो ला दूँ उसे खाकर थोडा सुस्ता ले फिर चले जाना ।
यह सुनकर वह हंसने लगा और हवा में ही अचानक लुप्त हो गया ।
ऐसे एक या दो नहीं हर रोज ही अलग अलग देखती हूँ - भला किन किन का वर्णन करूँ क्योंकि मैं तो उनके नाम भी नहीं जानती और पहले कभी देखा भी नहीं है ।"
इस प्रकार लीलाओं के चलते और दिव्य अनुभूतियों के साथ वह घडी आ ही पहुंची जब एक दिव्य महापुरुष का जन्म हुआ और एक नया युग आरम्भ हुआ जो कि भक्ति और समर्पण के मामले में अद्वितीय है आज तक ।
तत्कालीन निर्मित जन्म कुंडली के आधार पर शकाब्द 1757 (17 फरवरी 1836) फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि दिन बुधवार को आधी घडी रात) -पूर्वभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम चरण (कुम्भ लग्न के प्रथम नवमांश सूर्योदय से इष्टकाल 51 घटिका 28 पल ) में इस महापुरुष का जन्म हुआ ।
जन्मोपरांत की एक अन्य कथा का विवरण कहीं-कहीं प्राप्त होता है जो अग्र प्रकार है :
चंद्रा देवी को प्रसव पीड़ा हो रही थी और धनी लुहारिन उनके साथ थी - बच्चे के जन्म के उपरांत जैसे ही बच्चे की नाल काटने की तैयारी की तो यह देखकर हतप्रभ रह गयीं कि जिस स्थान पर बच्चे को रखा हुआ था वहां बच्चा है ही नहीं !
क्रमशः ..............................
माता महाकाली शरणम्
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