Tuesday 30 August 2016

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 6




यह सुनकर वह स्त्री गदाधर को बांह पकड़कर चंद्रा देवी के पास ले गयी और हँसते हुए सारा वृत्तांत कह सुनाया और यह सुनकर चंद्रा देवी ने मुस्कुराते हुए अति मधुर वचनों से गदाधर को समझाया “ ऐसा करने से तुझे कुछ भी ना होगा किन्तु स्त्रियों का मत है कि यदि स्नान करते हुए उन्हें कोई पुरुष देखता है तो इसे स्त्रियों का अपमान समझा जाता है – उन सबको तो तु मेरी ही तरह अपनी माँ और काकी कहता है तब क्या उनका अपमान मेरा अपमान नहीं हुआ और मेरा गदा ऐसा काम कैसे कर सकता है जिससे अन्य स्त्रियों अथवा मेरा अपमान हो”?

और यह बात गदाधर के बाल मन में बैठ गयी एवं इसके उपरांत फिर गदाधर ने पुनः वैसा कार्य नहीं किया .

पाठशाला में गदाधर की शिक्षा-दीक्षा बहुत बढ़िया चल रही थी और अपनी कुशाग्र बुद्धि से वह सब कुछ आसानी से समझ लेता था किन्तु गणित विषय से उसे घृणा सी थी और गिनती एवं अन्य गणितीय विषय उसकी समझ से परे थे साथ ही नूतन बातें और विषय उसे बहुत रुचिकर लगते थे वह प्रायः कुम्हारों को मूर्तियाँ बनाते हुए बड़ी तन्मयता से देखता था और घर आकर वैसी ही मूर्तियाँ बनाने की चेष्टा करता और उन्हें सुन्दरता के साथ बना भी लेता था .

ज्यों-ज्यों गदाधर बड़ा हो रहा था उसका मन भक्ति और आध्यात्म की ओर झुकाव हो रहा था उसे भगवत कथाओं और पुराणों आदि की कथा सुनने में विशेष आनंद आता था .

गदाधर बचपन से ही निडर और साहसी था एक बार की बात है उसकी बुआ रामशीला घर आई हुयी थीं और प्रचलित किवदंतियों के अनुसार वह पूरा ही परिवार शीतला माता का अनन्य भक्त था और रामशीला पर शीतला माता का संचार भी हुआ करता था और उस दिन उनके शरीर में शीतला देवी का संचार हुआ और उस दशा में उनका हट-पैर पटकना और बडबडाना देखकर घर के सारे लोग परेशान थे किन्तु गदाधर पास जाकर उनका निरीक्षण कर रहा था बाद में चंद्रा देवी से कहने लगा “बुआ के शरीर में जो देवी आई थी वही मेरे भी शरीर में आये तो फिर बहुत मजा आए”

भूरसुबो के माणिकराजा खुदीराम जी की धर्म परायणता से उन पर बहुत श्रद्धा रखते थे और उन्हें बारम्बार अपने यहाँ बुलाया करते थे, गदाधर जब छठवें वर्ष में पहुंचा तब खुदीराम जी उसे लेकर उनके वहां गए थे वहां गदाधर का मेलजोल और बर्ताव देखकर कोई यह कह ही नहीं सकता था कि यह बालक इस घर में प्रथम बार आया है और अपरिचित है.

माणिकराजा के भाई रामजय बालक को देखकर मुग्ध से हो गए थे और उन्होंने खुदीराम जी से कहा “तुम्हारा यह पुत्र बिल्कुल भी साधारण व्यक्ति नहीं है यह कोई देव अंश प्रतीत होता है, जब भी इस तरफ आया करो इसे साथ में जरुर लाया करो इसे देखकर मन बहुत आनंदित होता है”

माणिकराजा को भी शायद चैन नहीं मिल रहा था अस्तु जब काफी दिन तक खुदीराम जी का उनकी तरफ जाना नहीं हो सका तो उन्होंने ने खुद ही एक महिला को खुदीराम जी के घर भेज दिया कि वह गदाधर को अपने साथ ले आवे .

पिता कि अनुमति लेकर गदाधर उस महिला के साथ माणिक राजा के यहाँ पहुँच गया और पूरा दिन वहीँ रहकर साँझ अलंकार और मिठाई की भेंट लेकर कामारपुकुर वापस आया .

गदाधर अब सातवें वर्ष में प्रवेश कर चुका था और अपनी सरल,विनोदी और मिलनसारिता की वजह से सभी अडोस-पड़ोस के लोगों को खास तौर पर स्त्रियों का चहेता हो गया था, पड़ोस की स्त्रियों के घर में यदि कोई विशेष भोजन या मिष्ठान आदि बनता तो वे उसमे से गदाधर का हिस्सा अलग करके रख लेती थीं और समय मिलते ही जाकर उसे बड़े वात्सल्य भाव से खिलाकर स्वयं तृप्त महसूस करती थीं .

इसी प्रकार उसके मित्र भी यदि उनके घर में कुछ विशेष बनता था तो अपने भाग में से गदाधर के लिए बचाकर रख लेते थे और मिलते ही उसे बड़े चाव से खिलाते थे .

सबका चहेता होने की वजह से गदाधर का स्वास्थ्य आरम्भ से ही बहुत उत्तम और सुगठित था किन्तु उसकी स्वाभाविक एकाग्रचित्तता और किसी विषय में पूर्ण रूप से डूब जाने की प्रवृत्ति की वजह से इतना तन्मय हो जाता था कि उसे अपने शरीर की सुधि भी ना रह जाती थी .

एक बार गदाधर खेतों के मेड़ों से गुजर रहा था और आसमान में काले बादल जैसे उमड़ने लगे थे साथ ही धवल बगुले मानों किलोल कर रहे थे और इस भावात्मक प्रतिबिम्ब में गदाधर इतना डूब गया कि उसे मूर्छा आ गयी और वह वहीँ मेड पर गिर गया बहुत शुश्रूषा के बाद होश आया तो घर वालों को ये डर सताने लगा कि कहीं यह मूर्छा स्थायी बीमारी बनकर ना रह जाये अस्तु तरह-तरह के औषधि और शांति प्रयोग कराये जाने लगे .

जबकि गदाधर का कहना था कि “मुझे आयी मूर्छा किसी रोग वश नहीं थी बल्कि मुझे उस समय अत्यधिक आनंद की अनुभूति हो रही थी और मेरा मन उस दृश्य में स्थिर हो गया था”

1843 के शारदीय दुर्गा पूजन का समय आ पहुंचा था, खुदीराम जी के भांजे राम चाँद जी प्रायः वर्ष भर मेदिनीपुर में रहते थे लेकिन दुर्गोत्सव के समय अपने पैतृक गांव सेलामपुर में बड़े धूम-धाम से मनाया करते थे और उत्सव में खुदीराम जी भी पहुँचते थे और इस बार भी उन्हें निमंत्रण मिला था .

खुदीराम जी की आयु लगभग अब ६८ वर्ष पहुँच चुकी थी और इस वर्ष में लगातार संग्रहणी की वजह से उन्हें बहुत समस्या और कमजोरी का सामना करना पड़ रहा था और इसी वजह से वे कशमकश में थे कि उन्हें उत्सव में सम्मिलित होना चाहिए या नहीं फिर यह सोचकर कि अब तो जीवन का वह भाग शुरू हो चुका है जब आज है तो कल देखने को मिलेगा या नहीं इसी विचार से उन्होंने उत्सव में सम्मिलित होने का मन बना लिया .

सेलामपुर पहुँचते ही उनका संग्रहणी रोग पुनः उभर गया और वे शिथिल होने लगे हालाँकि राम चाँद ने यथा उपयुक्त उपचार आरम्भ करवा दिया किन्तु रोग था कि शांत होने की जगह और उफान पर लग्ने लगा और इसी तरह अष्टमी तक के दिन बीते लेकिन नवमी के दिन उनका रोग इतना बढ़ गया कि सभी लोगों ने पूरी रात आँखों ही आँखों में काट दी और खुदीराम जी के मुख से आवाज निकलनी भी बंद हो गयी – सबको इस बात का आभास हो चला था कि बस अब अंतिम काल है और किसी भी समय आत्मा परमात्मा से मिलन के लिए निकल सकती है, खुदीराम जी की यह हालत देखकर राम चाँद की आँखे छलछला आयीं और ह्रदय में हुक सी उठ रही थी भावावेश में वे बोल उठे “मामा आप तो सदैव रघुवीर-रघुवीर जपा करते हो फिर आज क्या हुआ जो ऐसे पड़े हो और रघुवीर को भी नहीं भज रहे हो” रघुवीर सुनते ही खुदीराम जी में प्राणों का मानो संचार हुआ और धीमे कांपते हुए स्वर में पूछा “कौन राम चाँद ? प्रतिमा विसर्जन हो गया क्या ?

अच्छा ठीक है अगर सब कार्य सम्पूर्ण हुआ तो मुझे जरा सहारा देकर एक बार उठाकर बिठाओ तो !”

और यह सुनकर जब सभी ने मिलकर उन्हें उठाकर बिठाया तो बड़े गंभीर स्वर में उन्होंने तीन बार ‘रघुवीर’ उच्चारण किया और बस दीपक बुझ गया, दुल्हन अपने पिया से मिलने कि बेकरारी में सब कुछ छोड़ छाड़ कर विदा हुयी .

खुदीराम जी के सिधारते ही चंद्रा देवी का मन विरक्ति भाव से भर उठा लेकिन छलिनी माया भला किसी को ऐसे बख्शती है क्या ?

कुछ ही दिनों में गदाधर की चंचलताओं और चार वर्षीय सर्वमंगला के रूप में मोहपाश फिर फ़ैल गया .

रामकुमार परिवार के ज्येष्ठ पुत्र थे और अब परिवार की समस्त जिम्मेदारी उनके ही कन्धों पर आ गयी थी .


क्रमशः ..............................



माता महाकाली शरणम्

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