Friday, 28 February 2014

षोडशोपचार पूजा पद्धति - Shodsopchar Puja Maa Durga

षोडशोपचार पूजा पद्धति - Shodsopchar Puja 

षोडशोपचार पूजा में सारे चरण एक समान ही होते हैं बस इष्ट कि प्रकृति के आधार पर प्रयोग किये जाने वाले रंग, आसान एवं मन्त्रों में बदलाव आता है ----- दूसरा भ्रम कई बार ये हो जाता है कि षोडशोपचार पूजन में २१ से लेकर ३० या इससे भी अधिक चरण होते हैं तो नए साधकों को लगने लग जाता है कि कहीं ये कोई दूसरा और असंबंधित तरीका तो नहीं है --- तो मैं एक बार फिर स्पष्ट कर दूँ कि षोडशोपचार पूजन में किसी शंका का शिकार ना हों यदि चरणों कि संख्या ज्यादा है तो इससे कोई नुकसान नहीं है और इनकी संख्या मूल चरणों के प्रतिभागों में बढ़ोत्तरी कि वजह से आ जाती है





इस पद्धति में अपने इष्ट देव का सोलह प्रकार से पूजन किया जाता है.

जिनके नाम क्रमशः नीचे दिए जा रहे हैं :-

१.आवाहन
२. आसन
३. पाद्य ( चरण धोना )
४. अर्घ्य
५, आचमन
६. स्नान
७. वस्त्र
८. यज्ञोपवीत
९. चन्दन
१०. अक्षत
११. पुष्प
१२. सिंदूर
१३. पान सुपारी
१४. धूप दीप
१५. नैवेद्य
१६. दक्षिणा एवं प्रदक्षिणा

माँ दुर्गा और माँ चामुंडा में अंतर - Difference Between Maa Durga and Maa Chamunda

माँ दुर्गा और माँ चामुंडा में अंतर 


बहुत से साधक साधनाओं के बारे में जानना चाहते हैं और साधनाएं करना चाहते  हैं - किन्तु कई बार वे भ्रमित हो जाते हैं - जैसे कि उन्हें कोई सलाह दे देता है कि माँ चामुंडा कि साधना का लो या फिर माँ चामुंडा का चालीसा पाठ कर लो या माँ चामुंडा के कवच का पाठ कर लो या कीलक का पाठ कर लो - उस समय नए साधकों के लिए भ्रम कि स्थिति उत्पन्न हो जाती है और वे निश्चित नहीं कर पाते कि उन्हें माता चामुंडा की साधना सामग्री कहाँ से मिलेगी ?


तो यहाँ मैं उन सब नए साधक भाईओं के लिए एक बात स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि माँ दुर्गा को ही माँ चामुंडा के नाम से भी जाना जाता है इसलिए किसी भ्रम का शिकार ना बनें यदि कोई आपको माँ चामुंडा कि साधना या पाठ बताता है तो उसके लिए माँ दुर्गा के लिए नियत सामग्री और साधनों का इस्तेमाल करना है


Maa Durga

Wednesday, 26 February 2014

शिवमहिम्न स्तोत्र पुष्पदन्त - Shiv Mahima Stotra Pushpdant



॥ शिवमहिम्न स्तोत्र पुष्पदन्त ॥




अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम्‌॥

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥ १॥

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ २॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन्‌ किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्‌।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन्‌ पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥ ३॥

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्‌
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन्‌ वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥ ४॥

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित्‌ मुखरयति मोहाय जगतः॥ ५॥

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद्‌ भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥ ६॥

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ ७॥

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्‌।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥ ८॥

ध्रुवं कश्चित्‌ सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन्‌ पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन्‌ जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ ९॥

तवैश्वर्यं यत्नाद्‌ यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्‌
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डू-परवशान्‌।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्‌॥ ११॥

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात्‌ कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्‌ ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥ १२॥

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन्‌ वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥ १३॥

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद्‌ यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भङ्ग- व्यसनिनः॥ १४॥

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्‌
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥ १५॥

मही पादाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्‌ भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम्‌।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ १६॥

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥ १७॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥ १८॥

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन्‌ निजमुदहरन्नेत्रकमलम्‌।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्‌॥ १९॥

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्‌ त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥ २०॥

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धा-विधुरमभिचाराय हि मखाः॥ २१॥

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्‌ भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥ २२॥

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्‌
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्‌
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ २३॥

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥ २४॥

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्‌ किल भवान्‌॥ २५॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्‌ त्वं न भवसि॥ २६॥

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्‌
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्‌ तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्‌॥ २७॥

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्‌
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्‌।
अमुष्मिन्‌ प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥ २८॥

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥ २९॥

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत्‌ संहारे हराय नमो नमः।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥ ३०॥

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं 
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्‌ 
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्‌॥ ३१॥

असित-गिरि-समं स्यात्‌ कज्जलं सिन्धु-पात्रे 
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥ ३२॥

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः 
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः 
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥ ३३॥

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्‌ पठति 
परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान्‌ यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र 
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान्‌ कीर्तिमांश्च॥ ३४॥

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। 
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्‌॥ ३५॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। 
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ ३६॥

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्‌
स्तवनमिदमकार्षीद्‌ दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥ ३७॥

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्‌॥ ३८॥

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्‌।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्‌॥ ३९॥

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥ ४०॥

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥ ४१॥

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥ ४२॥

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥ ४३॥


॥ इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम्‌॥

शिव चालीसा - Shiv Chalisa

शिव चालीसा



।।दोहा।।

श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥

जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥

महाशिवरात्रि षोडशोपचार पूजन विधि - Shiv Shodsopchar Poojan

महाशिवरात्रि षोडशोपचार पूजन विधि




शिवपुराण के अनुसार व्रत करने वाले पुरुष को महाशिवरात्रि के दिन प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदि कर्म करना चाहिए.

मस्तक पर भस्म का त्रिपुण्ड्र तिलक और गले में रुद्राक्ष की माला धारण करें.

पास के शिवालय में जाकर शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजन एवं शिव को नमस्कार करना चाहिए.

तत्पश्चात् महाशिवरात्रि व्रत का इस प्रकार संकल्प करना चाहिए -

शिवरात्रिव्रतं ह्यतत् करिष्येऽहं महाफलम्।
निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते॥

प्रथम प्रहर में संकल्प करके दूध से स्नान और “ॐ हीं ईशानाय नम:” का जप करें.

द्वितीय प्रहर में दधि स्नान करके “ॐ हीं अधोराय नम:” का जप करें.

तृतीय प्रहर में घृत स्नान एवं मंत्र “ॐ हीं वामदेवाय नम:”

चतुर्थ प्रहर में मधु स्नान एवं “ॐ हीं सद्योजाताय नम:” मंत्र का जप करें.

महाशिवरात्रि मंत्र और समर्पण

महाशिवरात्रि पूजा विधि के दौरान हर समय “ॐ नम: शिवाय” मंत्र का जप करते रहना चाहिए.

1. ध्यान
2. आसन
3. पाद्य
4. अर्घ्य
5. आचमन
6. स्नान
7. दूध स्नान
8. दधि स्नान
9. घृत स्नान
10. गंधोदक स्नान
11. शर्करा स्नान
12. पंचामृत स्नान
13. शुद्धोदक स्नान
14. अभिषेक
15. वस्त्र
16. यज्ञोपवीत
17. उपवस्त्र
18. बेल पत्र
19. धूप
20. दीप
21. नैवेद्य
22. चंदन का लेप
23. ऋतुफल
24. तांबूल-पुंगीफल
25. दक्षिणा रख कर "समर्पयामि" कहकर पूजा संपन्न करें.
26. आरती (कपूर आदि से )
27. प्रदक्षिणा,
28. पुष्पांजलि,
29. शाष्टांग प्रणाम

और इसके पश्चात् अपना सारा पूजन कर्म शिवार्पण करें.

और इस प्रकार से षोडशोपचार पूजा सम्पन्न करके अपनी पूजा का समापन करें

महाशिवरात्रि व्रत प्राप्त काल से चतुर्दशी तिथि रहते रात्रि पर्यन्त करना चाहिए.

रात् के चारों प्रहरों में भगवान शंकर की पूजा-अर्चना करने से जागरण, पूजा और उपवास तीनों कर्मों का एक साथ पालन हो जाता है और भगवान शिव की विशेष कृपा और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है.

शिवाष्टक स्तोत्र / Rudrashtak

शिवाष्टक स्तोत्र / Rudrashtak



ॐ नमः शिवायः

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥

रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।

दुर्गा शप्तशती चमन - Durga Shaptshati Chaman

दुर्गा शप्तशती चमन - Durga Shaptshati Chaman



दुर्गा सप्तशती : पहला अध्याय



वन्दे गौरी गणपति शंकर और हनुमान,
राम नाम प्रभाव से है सब का कल्याण ॥


गुरुदेव के चरणों की रज मस्तक पे लगाऊँ,
शारदा माता की कृपा लेखनी का वर पाऊँ ॥


नमो नारायण दास जी विप्रन कुल श्रृंगार,
पूज्य पिता की कृपा से उपजे शुद्ध विचार ॥


वन्दु संत समाज को वंदु भगतन भेख,
जिनकी संगत से हुए उलटे सीधे लेख ॥


आदि शक्ति की वंदना करके शीश नवाऊँ,
सप्तशती के पाठ की भाषा सरल बनाऊँ ॥


क्षमा करे विद्वान सब जान मुझे अनजान,
चरणों की रज चाहता बालक 'भक्त' नादान ॥

घर घर दुर्गा पाठ का हो जाए प्रचार,
आदि शक्ति की भक्ति से होगा बेड़ा पार ॥


कलयुग कपट कियो निज डेरा,
कर्मों के वश कष्ट घनेरा ॥

चिंता अग्न में निस दिन जरहि,
प्रभु का सिमरन कबहू ना करही ॥


यह स्तुति लिखी तिनके कारण,
दुःख नाशक और कष्ट निवारण ॥


मारकंडे ऋषि करे बखाना,
संत सुनाई लावे निज ध्याना ॥


स्वोर्चित नामक मन्वन्तर में,
सुरथ नामी राजा जग भर में ॥

राज करत जब पड़ी लड़ाई,
युद्ध में मरी सभी कटकाई ॥


राजा प्राण लिए तब भागा,
राज कोष परिवार त्यागा ॥


सचिवन बांटेयो सभी खजाना,
राजन यह मर्म यह बन मे जाना ॥

सुनी खबर अति भयो उदासा,
राजपाट से हुआ निराशा ॥


भटकत आयो इकबन माहीं,
मेधा मुनि के आश्रम जाहीं ॥


मेधा मुनि का आश्रम था कल्याण निवास,
रहने लगा सुरथ वह बन संतन का दास ॥


इक दिन आया राजा को अपने राज्य का ध्यान,
चुपके आश्रम से निकला पहुंचा बन में आन ॥


मन में शोक अति पूजाए,
निज नैन से नीर बहाए ॥


पुर ममता अति ही दुःख लागा,
अपने आपको जान अभागा ॥


मन में राजन करे विचारा,
कर्मन वश पायो दुःख भारा ॥


रहे न नौकर आज्ञाकारी,
गई राजधानी भी सारी ॥

विधान्मोहे भयो विपरीता,
निशदिन रहूं विपन भयभीता ॥


सोचत सोच रह्यो भुआला,
आयो वैश्य एक्तेही काला ॥


तिन राजा को कीन्ही प्रणाम,
वैश्य समाधि कह्यो निज नाम ॥


राजा कहे समाधि से कारन दो बतलाये,
दुखी हुए मन मलीन से क्यों इस वन में आये ॥


आह भरी उस वैश्य ने बोला हो बेचैन,
सुमरिन कर निज दुःख का भर आये जल नैन ॥

वैश्य कष्ट मन का कह डाला,
पुत्रों ने है घर से निकला ॥


छीन लियो धन सम्पति मेरी,
मेरी जान विपद ने घेरी ॥


घर से धक्के खा वन आया,
नारी ने भी दगा कमाया ॥


सम्बन्धी स्वजन सब त्यागे,
दुःख पावेंगे जीव अभागे ॥


फिर भी मन मे धीर ना आवे,
ममतावश हर दम कल्पावे ॥

मेरे रिश्तेदारों ने किया नीचो का काम,
फिर भी उनके बिना ना आये मुझे आराम ॥

सुरथ ने कहा मेरा भी ख्याल ऐसा,
तुम्हारा हुआ ममतावश हाल जैसा ॥


चले दोनों दुखिया मुनि आश्रम,
आये चरण सर नव कर वचन ॥
ये सुनाये ऋषिराज कर कृपा बतलाइयेगा,
हमे भेद जीवन का समझाइएगा ॥

जिन्होंने हमारा निरादर किया है,
हमे हर जगह ही बेआदर किया है ॥


लिया छीन धन और सर्वस है,
जो किया खाने तक से भी बेबस है ॥


जो ये मन फिर भी क्यों उनको अपनाता है,
उन्हीं के लिए क्यों यह घबराता है ॥


हमारा यह मोह तो छुड़ा दीजियेगा,
हमे अपने चरणों में लगा लीजियेगा ॥

बिनती उनकी मान कर, मेधा ऋषि सुजान,
उनके धीरज के लिए कहे यह आत्म ज्ञान ॥

यह मोह ममता अति दुखदाई,
सदा रहे जीवो में समाई ॥


पशु पक्षी नर देव गंधर्व,
ममतावश पावें दुःख सर्व ॥


गृह सम्बन्धी पुत्र और नारी,
सब ने ममता झूठी डारी ॥


यद्यपि झूठ मगर ना छूटे,
इसी के कारन कर्म हैं फूटे ॥


ममता वश चिड़ी चोगा चुगावे,
भूखी रहे बच्चों को खिलावे ॥


ममता ने बांधे सब प्राणी,
ब्राह्मण डोम ये राजा रानी ॥


ममता ने जग को बौराया,
हर प्राणी का ज्ञान भुलाया ॥


ज्ञान बिना हर जीव दुखारी,
आये सर पर विपदा भारी ॥


तुमको ज्ञान यथार्थ नाही,
तभी तो दुःख मानो मन माही ॥

पुत्र करे माँ बाप को लाख बार धिक्कार,
मात पिता छोड़े नहीं फिर झूठा प्यार ॥


योगनिद्रा इसी को ममता का है नाम,
जीवों को कर रखा है इसी ने बे-आराम ॥


भगवान् विष्णु की शक्ति यह,
भक्तों की खातिर भक्ति यह ॥


महामाया नाम धराया है,
भगवती का रूप बनाया है ॥


ज्ञानियों के मन को हरती है,
प्राणियों को बेबस करती है ॥


यह शक्ति मन भरमाती है,
यह ममता मे फंसाती है ॥


यह जिस पर कृपा करती है,
उसके दुखों को हरती है ॥


जिसको देती वरदान है यह,
उसका करती कल्याण है यह ॥


यही ही विद्या कहलाती है,
अविद्या भी बन जाती है ॥


संसार को तारने वाली है,
यह ही दुर्गा महाकाली है ॥


सम्पूर्ण जग की मालिक है,
यह कुल सृष्टि की पालक है ॥

ऋषि से पूछा राजा ने कारन तो बतलाओ,
भगवती की उत्पति का भेद हमें समझाओ ॥


मुनि मेधा बोले सुनो ध्यान से,
मग्न निद्रा में विष्णु भगवान थे ॥

थे आराम से शेष शैया पे वो,
असुर मधु-कैटभ वह प्रगटे दो ॥


श्रवण मैल से प्रभु की लेकर जन्म,
लगे ब्रह्मा जी को वो करने खत्म ॥


उन्हें देख ब्रह्मा जी घबरा गए,
लखी निद्रा प्रभु की तो चकरा गए ॥


तभी मग्न मन ब्रह्मा स्तुति करी,
की इस योग निद्रा को त्यागो हरी ॥


कहा शक्ति निद्रा तू बन भगवती,
तू स्वाहा तू अम्बे तू सुख सम्पति ॥


तू सावित्री संध्या विश्व आधार तू है,
उत्पति पालन व संघार तू है ॥


तेरी रचना से ही यह संसार है,
किसी ने ना पाया तेरा पार है ॥


गदा शंख चक्र पद्म हाथ ले,
तू भक्तों का अपने सदा साथ दे ॥


महामाया तब चरण ध्याऊँ,
तुम्हरी कृपा अभय पद पाऊँ ॥


ब्रह्मा विष्णु शिव उपजाए,
धारण विविध शरीर कर आये ॥


तुम्हरी स्तुति की ना जाए,
कोई ना पार तुम्हारा पाए ॥


मधु कैटभ मोहे मारन आये,
तुम बिन शक्ति कौन बचाए ॥


प्रभु के नेत्र से हट जाओ,
शेष शैया से इन्हें जगाओ ॥


असुरों पर मोह ममता डालो,
शरणागत को देवी बचा लो ॥

सुन स्तुति प्रगटी महामाया,
प्रभु आँखों से निकली छाया ॥


तामसी देवी तब नाम धराया ,
ब्रह्मा खातिर प्रभु जगाया ॥


योग निंद्रा के हटते ही प्रभु उघाड़े नैन,
मधु कैटभ को देखकर बोले क्रोधित बैन ॥


ब्रह्मा मेरा अंश है मार सके ना कोय,
मुझ से बल आजमाने को लड़ देखो तुम दोए ॥


प्रभु गदा लेकर उठे करने दैत्य संघार,
पराक्रमी योद्धा लड़े वर्ष वो पांच हजार ॥


तभी देवी महामाया ने दैत्यों के मन भरमाये,
बलवानों के ह्रदय में दिया अभिमान जगाये ॥


अभिमानी कहने लगे सुन विष्णु धर ध्यान,
युद्ध से हम प्रसन्न है मांगो कुछ वरदान ॥


प्रभु थे कौतुक कर रहे बोले इतना हो,
मेरे हाथों से मरो वचन मुझे यह दो ॥


वचन बध्य वह राक्षस जल को देख अपार,
काल से बचने के लिए कहते शब्द उच्चार ॥


जल ही जल चहुँ ओर है ब्रह्मा कमल बिराज,
मारना चाहते हो हमें सो सुनिए महाराज ॥


वध कीजिए उस जगह पे जल न जहाँ दे दिखाये,
प्रभु ने इतना सुनते ही जांघ पे लिया लिटाये ॥


चक्र सुदर्शन से दिए दोनों के सर काट
खुले नैन रहे दोनों के देखत प्रभु की बाट ॥

ब्रह्मा जी की स्तुति सुन प्रगटी महामाया,
पाठ पढ़े जो प्रेम से उसकी करे सहाया ॥


शक्ति के प्रभाव का पहला यह अध्याय,
'भक्त' ' पाठ कारण लिखा सहजे शब्द बनाय ॥


श्रद्धा भक्ति से करो शक्ति का गुणगान,
रिद्धि सिद्धि नव निधि दे करे दाती कल्याण ॥

दुर्गा सप्तशती : दूसरा अध्याय



दुर्गा पाठ का दूसरा शुरू करूं अध्याय,
जिसके सुनाने पढने से सब संकट मिट जाये ॥


मेधा ऋषि बोले तभी, सुन राजन धर ध्यान,
भगवती देवी की कथा करे सबका कल्याण ॥


देव असुर भयो युद्ध अपार,
महिषासुर दैतन सरदारा योद्धा बली इन्दर से भिरयो
लड़यो वर्ष शतरनते न फिरयो ॥


देव सेना तब भागी भाई,
महिषासुर इन्द्रासन पाई ॥


देव ब्रह्मा सब करें पुकारा,
असुर राज लियो छीन हमारा ॥




ब्रह्मा देवन संग पधारे,
आये विष्णु शंकर द्वारे ॥


कही कथा भर नैनन नीरा,
प्रभु देत असुर बहु पीरा ॥


सुन शंकर-विष्णु अकुलाये,
भवे तनी मन क्रोध बढ़ाये ॥


नैन भये त्रयदेव के लाला,
मुख ते निकल्यो तेज विशाला ॥


तब त्रयदेव के अंगो से निकला तेज अपार,
जिसकी ज्वाला से हुआ उज्ज्वल सब संसार ॥


सभी तेज इक जा मिल जाई,
अतुल तेज बल परयो लखाई ॥


ताहि तेज सो प्रगटी नारी,
देख देव सब भयो सुखारी ॥


शिव के तेज ने मुख उपजायो,
धर्म तेज ने केश बनायो ॥


विष्णु तेज से बनी भुजाये,
कुच मे चंदा तेज समाये ॥


नासिका तेज कुबेर बनाई,
अग्नि तेज त्रयनेत्र समाई ॥


ब्रह्मा तेज प्रकाश फैलाये,
रवि तेज ने हाथ बनाये ॥


तेज प्रजापति दांत उपजाए,
श्रवण तेज वायु से पाए ॥


सब देवन जब तेज मिलाया,
शिवा ने दुर्गा नाम धराया ॥

अट्टाहास कर गरजी जब दुर्गा आध भवानी,
सब देवन ने शक्ति यह माता करके मानी ॥

शम्भु ने त्रिशूल, चक्र विष्णु ने दीना,
अग्नि से शक्ति और शंख वर्ण से लीना ॥


धनुष बाण, तर्कश, वायु ने भेंट चढाया,
सागर ने रत्नों का माँ को हार पहनाया ॥


सूर्य ने सब रोम किये रोशन माता के,
बज्र दिया इन्दर ने हाथ में जगदाता के ॥


एरावत की घंटी इन्दर ने दे डारी,
सिंह हिमालय ने दीना करने को सवारी ॥


काल ने अपना खड्ग दिया फिर सीस निवाई,
ब्रह्मा जी ने दिया कमण्डल भेंट चढाई ॥


विश्वकर्मा ने अदभूत एक परसा दे दीना,
शेषनाग ने छत्र माता को भेंटा कीना ॥


वस्त्र आभुषण नाना भांति देवन पहराये,
रत्न जटित मैया के सिर पर मुकुट सुहाए ॥

आदि भवानी ने सुनी देवन विनय पुकार,
असुरों के संघार को हुई सिंह असवार ॥


रण चंडी ज्वाला बनी हाथ लिए हथियार,
सब देवो ने मिल तभी कीनी जय जय कार ॥




चली सिंह चढ़ दुर्गा भवानी, देव सैन को साथ लिये,
सब हथियार सजाये रण के अति भयानक रूप किये ॥


महिषासुर राक्षस ने जब यह समाचार उनका पाया,
लेकर असुरों की सेना जल्दी रण-भूमि मे आया ॥


दोनों दल जब हुए सामने रण-भूमि मे लड़ने लगे,
क्रोधित हो रण चंडी चली लाशो पर लाशे पड़ने लगे ॥

भगवती का यह रूप देख असुरो के दिल थे कांप रहे,
लड़ने से घबराते थे, कुछ भाग गए कुछ हांफ रहे ॥


असुर के साथ करोड़ों हाथी घोड़े सेना में आये,
देख के दल महिषासुर का व्याकुल हो देवता घबराए ॥


रण चंडी ने दशो दिशाओं में वोह हाथ फैलाये थे,
युद्ध भूमि मे लाखो दैत्यों के सिर काट गिराए थे ॥


देवी सेना भाग उठी रह गई अकेली दुर्गा ही,
महिषासुर सेना के सहित ललकारता आगे बढ़ा ॥


तभी उस दुर्गा अष्टभुजी माँ ने रण भूमि में लम्बे सांस लिए,
श्वास श्वास में अम्बा जी ने लाखों ही गण प्रगट किये ॥


बलशाली गण बढ़े वो आगे सजे सभी हथियारों से,
गूंज उठा आकाश तभी माता के जै जैकारों से ॥


पृथ्वी पर असुरों के लहू की लाल नदी वह बहती थी,
बच नहीं सकता दैत्य कोई ललकार के देवी कहती थी ॥


लकड़ी के ढेरों को अग्नि जैसे भस्म बनाती है,
वैसे ही शक्ति की शक्ति दैत्यों को मिटाती जाती है ॥


सिंह चढ़ी दुर्गा ने पल में दैत्यों का संहार किया,
पुष्प देवों ने बरसाए माता का जै जैकार किया ॥


'भक्त' जो श्रद्धा प्रेम से दुर्गा पाठ को पढ़ता जायेगा,
दुखो से वह रहेगा बचा मन वांछित फल पायेगा ॥

दोहा : हुआ समाप्त दूसरा दुर्गा पाठ अध्याय,
'भक्त' भवानी की दया, सुख सम्पति घर आये ॥


दुर्गा सप्तशती : तीसरा अध्याय



चक्षुर ने निज सेना का सुना जभी संहार
क्रोधित होकर लड़ने को आप हुआ तैयार॥


ऋषि मेधा ने राजा से फिर कहा
सुनो तृतीय अध्याय की अब कथा महा॥


योद्धा चक्षुर था अभिमान में
गरजता हुआ आया मैदान में॥


वह सेनापति असुरों का वीर था
चलाता महाशक्ति पर तीर था॥


मगर दुर्गा ने तीर काटे सभी
कई तीर देवी चलाये तभी जभी॥


तीर तीरों से टकराते थे
तो दिल शूरवीरों के घबराते थे॥


तभी शक्ति ने अपनी शक्ति चला
वह रथ असुर का टुकड़े - टुकड़े किया॥


असुर देख बल माँ का घबरा गया
खड्ग हाथ ले लड़ने को आ गया॥


किया वार गर्दन पे तब शेर की
बड़े वेग से खड्ग मारी तभी॥


भुजा शक्ति पर मारा तलवार को
वह तलवार टुकड़े-टुकड़े गई लाख हो॥


असुर ने चलाई जो त्रिशूल भी
लगी माता के तन को वह फूल सी॥


लगा कांपने देख देवी का बल
मगर क्रोध से चैन पाया न पल॥


असुर हाथी पर माता थी शेर पर
लाइ मौत थी दैत्य को घेर कर॥


उछल सिंह हाथी पे ही जा चढ़ा
वह माता का सिंह दैत्य से जा लड़ा॥


जबी लड़ते लड़ते गिरे पृथ्वी पर
बढ़ी भद्रकाली तभी क्रोध कर॥


असुर दल का सेनापति मार कर
चली काली के रूप को धार कर॥


गर्जती खड्ग को चलाती हुई
वह दुष्टों के दल को मिटाती हुई॥


पवन रूप हलचल मचाती हुई
असुर दल जमीं पर सुलाती हुई॥


लहू की वह नदियां बहाती हुई
नए रूप अपने दिखाती हुई॥


महाकाली ने असुरों की जब सेना दी मार
महिषासुर आया तभी रूप भैंसे का धार॥


गरज उसकी सुनकर लगे भागने गण, कई भागतों को असुर ने संहारा
खुरो से दबाकर कई पीस डाले, लपेट अपनी पूंछ से कईयो को मारा॥


जमीं आसमा को गर्ज से हिलाया
पहाड़ो को सींगो से उसने उखाड़ा॥


श्वांसो से बेहोश लाखो ही कीने
लगे करने देवी के गण हाहाकारा॥


विकल अपनी सेना को दुर्गा ने देखा, चढ़ी सिंह पर मार किलकार आई
लिए शंख चक्र गदा पद्म हाथों वह त्रिशूल परसा ले तलवार आई॥


किया रूप शक्ति ने चंडी का धारण
वह दैत्यों का करने थी संहार आई॥


लिया बांध भैंसे को निज पाश में
झट असुर ने वो भैंसे की देह पलटाई बना शेर सन्मुख लगा गरजने॥


वो तो चंडी ने हाथों में फरसा उठाया
लगी काटने दैत्य के सिर को दुर्गा तो तज सिंह का रूप नर बन के आया॥

जो नर रूप की माँ ने गर्दन उड़ाई, तो कर गज रूप धारण बिलबिलाया
लगा खींचने शेर को सूंड से जब, तब दुर्गा ने सूंड को काट गिराया॥


कपट कर समाप्त दिया माया ने
रूप बदला लगा भैंसा बन के उपद्रव मचाने॥


तभी क्रोधित होकर जगत मात चंडी, लगी नेत्रों से अग्नि बरसाने
उछल भैंसे की पीठ पर जा चढ़ी वह लगी पांवो से उसकी देह को दबाने॥


दिया काट सर भैंसे का खड्ग से जब, तो आधा ही तन असुर का बाहर आया
तब त्रिशूल जगदम्बे ने हाथ लेकर महा दुष्ट का सीस धड से उड़ाया॥


चली क्रोध से मैया ललकारती तब किया पल मे दैत्यों का सारा सफाया
पुष्प देवों ने मिल कर गिराए, अप्सराओं व गन्धर्वो ने राग गाया॥


तृतीय अध्याय में है महिषासुर संहार
'भक्त' पढ़े जो प्रेम से मिटते कष्ट अपार॥

दुर्गा सप्तशती : चौथा अध्याय


आदि शक्ति ने जब किया महिषासुर का नास
सभी देवता आ गये तब माता के पास॥

मुख प्रसन्न से माता के चरणों मे सीस झुकाए
करने लगे वह स्तुति मीठे बैन सुनाये॥

हम तेरे ही गुण गाते हैं
चरणों मे सीस झुकाते हैं॥
तेरे जय कार मनाते हैं॥

जय जय अम्बे जय जगदम्बे

जय दुर्गा आदि भवानी की
जय जय शक्ति महारानी की॥

जय अभयदान वरदानी की
जय अष्टभुजी कल्याणी की॥

तुम महा तेज शक्तिशाली हो
तुम ही अदभुत बलवाली हो॥

तुम ही रण चंडी तुम ही महाकाली हो
तुम दासों की रखवाली हो॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

तुम दुर्गा बन कर तारती हो
चंडी बन दुष्ट संहारती हो॥

काली रण मे ललकारती हो
शक्ति तुम बिगड़ी सवांरती हो॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥


हर दिल में वास तुम्हारा है
तेरा ही जगत पसारा है॥

तुमने ही अपनी शक्ति से
बलवान देत्यो को मारा है॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

ब्रह्मा विष्णु महादेव बड़े
तेरे दर पर कर जोड़ खड़े॥

वर पाने को चरणों मे पड़े
शक्ति पा जा दैत्यों से लड़े॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

हर विद्या का है ज्ञान तुझे
अपनी शक्ति पर मान तुझे॥

हर एक की है पहचान तुझे
हर दास का माता ध्यान तुझे॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥



ब्रह्मा जब दर पर आते हैं
वेदों का पाठ सुनाते हैं॥

विष्णु जी चवर झुलाते हैं
शिव शम्भू नाद बजाते हैं॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

तू भद्रकाली है कहलाई
तू पार्वती बन कर आई॥

दुनिया के पालन करने को
तू आदि शक्ति है महामाई॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

निर्धन के तू भण्डार भरे
तू पतितो का उद्धार करे॥

तू अपनी भगति दे करके
भव सागर से भी पार करे॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

है त्रिलोकी मे वास तेरा
हर जीव है मैया दास तेरा॥

गुण गाता जमी आकाश तेरा
हमको भी है विश्वास तेरा॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

दुनिया के कष्ट मिटा माता
हर एक की आस पूजा माता॥

हम और नहीं कुछ चाहते हैं
बस अपना दास बना माता
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

तू दया करे तो मान भी हो
दुनिया के कुछ पहचान भी हो॥


भक्ति से पैदा ज्ञान भी हो
तू कृपा करे कल्याण भी हो॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

देवी ने प्रेम-पुकार करी
माँ अम्बे झट प्रसन्न हुई॥

दर्शन देकर जग की जननी
तब मधुर वाणी से कहने लगी॥

मांगो वरदान जो मन भये
देवो ने कहा तब हर्षाये॥

जब भी हम प्रेम से याद करें
माँ देना दर्शन दिखलाये॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

तब भद्रकाली यह बोल उठी
तुम याद करोगे मुझे जब ही
मै संकट दूर करू तब ही॥

तब भक्त ख़ुशी हो सब ने कहा
जय जग्तारनी भवानी माँ॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

वेदों ने पार ना पाया है
कैसे शक्ति महामाया है॥

लिखते लिखते यह दुर्गा पाठ
मेरा भी मन हर्षाया है॥

नादान भक्त पे दया करो
शारदा माता सिर हाथ धरो॥

जो पाठ प्रेम से पढ़े जाये
मुह माँगा माता वर पाए॥

सुख सम्पति उसके घर आये
हर समय तुम्हारे गुण गाये॥

उसके दुःख दर्द मिटा देना
दर्शन अपना दिखला देना॥
हम तेरे ही गुण गाते हैं॥

जैकार स्त्रोत यह पढ़े जो मन चित लाये
भगवती माता उसके सब देंगी कष्ट मिटाए॥

माता के मंदिर मे जा सात बार पढ़े जोए
शक्ति के वरदान से सिद्ध कामना होए॥

'भक्त' निरंतर जो पढ़े एक ही बार
सदा भावी सुख दे भरती रहे भंडार॥

इस स्त्रोत को प्रेम से जो भी पढ़े सुनाये
हर संकट मे भगवती होवे आन शये॥

मान इज्जत सुख सम्पति मिले 'भक्त' भरपूर
दुर्गा पाठी से कभी रहे ना मैया दूर॥

'भक्त' की रक्षा सदा ही करो जगत महारानी
जगदम्बे महाकालिका चंडी आदि भवानी॥

दुर्गा सप्तशती : पांचवा अध्याय


ऋषि राज कहने लगे, सुन राजन मन लाये
दुर्गा पाठ का कहता हूं पांचवा मैं अध्याय॥


एक समय शुम्भ निशुम्भ दो हुए दैत्य बलवान
जिनके भय से कंपता था यह सारा जहान॥


इन्द्र आदि को जीत कर लिया सिंहासन छीन
खोकर ताज और तख्त को हुए देवता दीन॥


देव लोक को छोड़ कर भागे जान बचाए
जंगल जंगल फिर रहे संकट से घबराए॥


तभी याद आया उन्हें देवी का वरदान
याद करोगे जब मुझे करूंगी मैं कल्याण॥


तभी देवताओं ने स्तुति करी
खड़े हो गए हाथ जोड़े सभी॥


लगे कहने ऐ मैया उपकार कर
तू आ जल्दी दैत्यों का संहार कर॥


प्रकृति महा देवी भद्रा है तू
तू ही गौरी धात्री व रुद्रा है तू॥


तू है चन्द्र रूप तू सुखदायनी
तू लक्ष्मी सिद्धि है सिंहवाहिनी॥


हैं बेअंत रूप और कई नाम हैं
तेरे नाम जपते सुबह शाम हैं॥


तू भक्तों की कीर्ति तू सत्कार है
तू विष्णु की माया तू संसार है॥


तू ही अपने दासों की रखवार है
तुझे माँ करोड़ों नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है।


तू हर प्राणी में चेतन आधार है
तू ही बुद्धि मन तू ही अहंकार है॥


तू ही निंद्रा बन देती दीदार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही छाया बनके है छाई हुई
क्षुधा रूप सब मे समाई हुई॥


तेरी शक्ति का सब में विस्तार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है।
नमस्कार है नमस्कार है॥


है तृष्णा तू ही क्षमा रूप है
यह ज्योति तुम्हारा ही स्वरूप है॥


तेरी लज्जा से जग शरमसार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही शांति बनके धीरज धरावे
तू ही श्रद्धा बनके यह भक्ति बढ़ावे॥


तू ही कान्ति तू ही चमत्कार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही लक्ष्मी बन के भंडार भरती
तू ही वृत्ति बन के कल्याण करती॥


तेरा स्मृति रूप अवतार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही तुष्ठी बनी तन में विख्यात है
तू हर प्राणी की तात और मात है॥


दया बन समाई तू दातार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही भ्रान्ति भ्रम उपजा रही
अधिष्ठात्री तू ही कहला रही॥


तू चेतन निराकार साकार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


तू ही शक्ति-ज्वाला प्रचंड है
तुझे पूजता सारा ब्रह्मंड है॥


तू ही रिधि -सिद्धि का भंडार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


मुझे ऐसा भक्ति का वरदान दो
'भक्त' का भी उद्दार कल्याण हो॥


तू दुखिया अनाथों की गमखार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


नमस्कार स्त्रोत को जो पढ़े
भवानी सभी कष्ट उसके हरे॥


हर जगह वह मददगार है
तुझे माँ करोड़ो नमस्कार है॥
नमस्कार है नमस्कार है॥


राजा से बोले ऋषि सुन देवों की पुकार
जगदम्बे आई वह रूप पार्वती का धार॥


गंगाजल में जब किया भगवती ने स्नान
देवों से कहने लगी किसका करते हो ध्यान॥


इतना कहते ही शिवा हुई प्रकट तत्काल
पार्वती के अंश से धरा रूप विशाल॥


शिवा ने कहा मुझ को हैं ध्या रहे
यह सब स्तुति मेरी ही गा रहे॥


हैं शुम्भ और निशुम्भ के डराए हुए
शरण में हमारी है आये हुए॥


शिवा अंश से बन गई अम्बिका
जो बाकी रही वह बनी कालिका॥


धरे शैल पुत्री ने यह दोनों रूप
बनी एक सुंदर और बनी एक करूप॥


महाकाली जग में विचरने लगी
और अम्बे हिमालय पे रहने लगी॥


तभी चंड और मुंड आये वहां
विचरती पहाड़ों में अम्बे जहाँ॥


रूप अति सुंदर न देखा गया
निरख रूप मोह दिल में पैदा हुआ॥


कहा जा के फिर शुम्भ महाराज जी
कि देखि है एक सुंदर आज ही॥


चढ़ी सिंह पर सैर करती हुई
वह हर मन में ममता को भरती हुई॥


चलो आँखों से देख लो भाल लो
रत्न है त्रिलोकी का सम्भाल लो॥


सभी सुख चाहे घर में मौजूद हैं
मगर सुन्दरी बिन वो बेसुध हैं॥


वह बलवान राजा है किस काम का
न पाया जो साथी यह आराम का॥


करो उससे शादी तो जानेंगे हम
महलों में लाओ तो मानेंगे हम॥


यह सुन कर वचन शुम्भ का दिल बढ़ा
महा असुर सुग्रीव से यूं कहा॥


जाओ देवी से जाके जल्दी कहो
कि पत्नी बनो महलों में आ रहो॥


तभी दूत प्रणाम करके चला
हिमालय पे जा भगवती से कहा॥


मुझे भेजा है असुर महाराज ने
अति योद्धा दुनिया के सरताज ने॥


वह कहता है दुनिया का मालिक हूं मैं
इस त्रिलोकी का प्रतिपालक हूं मैं॥


रत्न हैं सभी मेरे अधिकार में
मैं ही शक्तिशाली हूं संसार में।


सभी देवता सर झुकाएं मुझे
सभी विपदा अपनी सुनाएं मुझे।


अति सुंदर तुम स्त्री रत्न हो
हो क्यों नष्ट करती सुदरताई को॥


बनो मेरी रानी तो सुख पाओगी
न भटकोगी वन में न दुःख पाओगी॥


जवानी में जीना वो किस काम का
मिला न विषय सुख जो आराम का॥


जो पत्नी बनोगी तो अपनाऊंगा
मैं जान अपनी कुर्बान कर जाऊंगा॥


दूत की बातों पर दिया देवी ने ना ध्यान
कहा डांट कर सुन अरे मुर्ख खोल के कान॥


सुना मैंने वह दैत्य बलवान है
वह दुनिया में शहजोर धनवान है॥


सभी देवता हैं उस से हारे हुए
छुपे फिरते हैं डर के मारे हुए॥


यह मन की रत्नों का मालिक है वो
सुना यह भी सृष्टि का पालक है वो॥


मगर मैंने भी एक प्रण ठाना है
तभी न असुर का हुक्म माना है॥


जिसे जग में बलवान पाउंगी मैं
उसे कान्त अपना बनाउंगी मैं॥


जो है शुम्भ ताकत के अभिमान में
तो भेजो उसे आये मैदान में॥


कहा दूत ने सुन्दरी न कर यूं अभिमान
शुम्भ निशुम्भ हैं दोनों ही , योद्धा अति बलवान॥


उन से लड़कर आज तक जीत सका ना कोय
तू झूठे अभिमान में काहे जीवन खोये॥


अम्बा बोली दूत से बंद करो उपदेश
जाओ शुम्भ निशुम्भ को दो मेरा सन्देश॥


कहे दैत्य जो, वह फिर कहना आये
युद्ध की प्रतिज्ञा मेरी, देना सब समझाए॥

दुर्गा सप्तशती : छठा अध्याय


नव दुर्गा के पाठ का छठा है यह अध्याय
जिसके पढने सुनने से जीव मुक्त हो जाए॥

ऋषिराज कहने लगे सुन राजन मन लाये
दूत ने आकर शुम्भ को दिया हाल बतलाये॥

सुन कर सब व्रतांत को हुआ क्रोध से लाल
धूम्र-लोचन सेनापति बुला लिया तत्काल॥

आज्ञा दी उस असुर को सेना लेकर जाओ
केशो हो तुम पकड कर, उस देवी को लाओ॥

पाकर आज्ञा शुम्भ की चला दैत्य बलवान
सेना साथ हजार ले जल्दी पौह्चा आन॥

देखा हिमालय शिखर पर बैठी जगत आधार
क्रोध से तब सेनापति बोला यूं ललकार॥

चलो ख़ुशी से आप ही मम स्वामी के पास
नहीं तो गौरव का तेरे कर दूंगा मै नाश॥

सुने भवानी ने वचन बोलो तज अभिमान
देखूँ तो सेनापति कितना है बलवान॥

मै अबला तव हाथ से कैसे जान बचाऊं
बिना युद्ध पर किस तरह साथ तुम्हारे जाऊं॥

लड़ने को आगे बढ़ा सुन कर वचन दलेर
दुर्गा ने हुंकार से किया भस्म का ढेर॥

सेना तब आगे बढ़ी चले तीर पर तीर
कट कट कर गिरने लगे सिर से जुदा शरीर॥

माँ ने तीखे बाणों की वो वर्षा बरसाई
दैत्यों की सेना सभी गिरी भूमि पे आई॥

सिंह ने भी कर गर्जना लाखों दिए संहार
सीने दैत्यों के दिए निज पंजो से फाड़॥

लाशों के थे लग रहे रण भूमि में ढेर
चहुँ तरफा था फिर रहा जगदम्बा का शेर॥

धूम्रलोचन और सेना के मरने का सुन हाल
दैत्य राज की क्रोध से हो गई आंखें लाल॥


चंड मुंड तब दैत्यों से बोला यूं ललकार
सेना लेकर साथ तुम जाओ हो होशियार॥


मारो जाकर सिंह को देवी लाओ साथ
जीती गर ना आये तो करना उसका घात॥


देखूंगा उस अम्बे को है कितनी बलवाली
जिसने मेरी सेना यह मार सभी डाली॥


आज्ञा पाकर शुम्भ की चले दैत्य बलवीर
‘भक्त' इन्हें ले जा रही मरने को तकदीर॥

दुर्गा सप्तशती : सातवां अध्याय


चंड मुंड चतुरंगिणी सेना को ले साथ
अस्त्र शस्त्र ले देवी से चले करने दो हाथ॥


गये हिमालय पर जभी दर्शन सब ने पाए
सिंह चढ़ी माँ अम्बिका खड़ी वहां मुस्काए॥


लिये तीर तलवार दैत्य माता पे धाय
दुष्टों ने शस्त्र देवी पे कई बरसाए।


क्रोध से अम्बा की आँखों में भरी जो लाली
निकली दुर्गा के मुख से तब ही महाकाली॥


खाल लपेटी चीते की गल मुंडन माला
लिये हाथ में खप्पर और एक खड्ग विशाला॥


लपलप करती लाल जिव्हा मुहं से थी निकाली
अति भयानक रूप से फिरती थी महाकाली॥


अट्टाहास कर गरजी तब दैत्यों में धाई
मारधाड़ करके कीनी असुरों की सफाई॥


पकड़ पकड़ बलवान दैत्य सब मुहं में डाले
पावों नीचे पीस दिए लाखों मतवाले॥


रुण्डमाला में काली सीस पिरोये
कइयों ने तो प्राण ही डर के मारे खोये॥


चंड मुंड यह नाश देख आगे बढ़ आये
महाकाली ने तब अपने कई रंग दिखाए॥

खड्ग से ही कई असुरों के टुकड़े कर दीने
खप्पर भर भर लहू लगी दैत्यों का पीने॥

दोहा :
चंड मुंड का खडग से लीना सीस उतार
आ गई पास भवानी के मार एक किलकार॥


कहा काली ने दुर्गा से किये दैत्य संहार
शुम्भ निशुम्भ को अपने ही हाथों देना मार॥


तब अम्बे कहने लगी सुन काली मम बात
आज से चामुंडा तेरा नाम हुआ विख्यात॥


चंड मुंड को मार कर आई हो तुम आज
आज से घर घर होवेगा नाम तेरे का जाप॥


जो श्रद्धा विश्वास से सप्तम पढ़े अध्याय
महाकाली की कृपा से संकट सब मिट जाए॥


नव दुर्गा का पाठ यह करे कल्याण
पढने वाला पायेगा मुहं मांगा वरदान॥

दुर्गा सप्तशती : आठवां अध्याय


काली ने जब कर दिया चंड मुंड का नाश
सुनकर सेना का मरण हुआ निशुम्भ उदास॥


तभी क्रोध करके बढ़ा आप आगे
इकट्ठे किये दैत्य जो रण से भागे॥

कुलों के कुल असुरों के लिए बुलाई
दिया हुकम अपना उन्हें तब सुनाई॥


चलो युद्ध भूमि में सेना सजा के
फिरो देवियों का निशां तुम मिटा के॥


अधायुध और शुम्भ थे दैत्य योद्धा
भरा उनके दिल में भयंकर क्रोध॥


असुर रक्तबीज को ले साथ धाये
चले काल के मुहं में सेना सजाये॥


मुनि बोले राजा वह शुम्भ अभिमानी
चला आप भी हाथ में धनुष तानी॥


जो देवी ने देखी सेना आई
धनुष की तभी डोरी माँ ने चढाई॥


वह टंकार सुन गूंजा आकाश सारा
महाकाली ने साथ किलकार मारा॥


किया सिंह ने भी शब्द फिर भयंकर
आये देवता ब्रह्मा विष्णु व शंकर॥


हर एक अंश से रूप देवी ने धारा
वह निज नाम से नाम उनका पुकारा॥


बनी ब्रह्मा के अंश देवी ब्रह्माणी
चढ़ी हंस माला कमंडल निशानी॥


चढ़ी बैल त्रिशूल हाथो में लाई
शिवा शक्ति शंकर की जग में कहलाई॥


वह अम्बा बनी स्वामी कार्तिक की अंशी
चढ़ी गरुड़ आई जो थी विष्णु वंशी॥


वराह अंश से रूप वाराही आई
वह नरसिंह से नर्सिंघी कहलाई॥


ऐरावत चढ़ी इन्द्र की शक्ति आई
महादेव जी तब यह आज्ञा सुनाई॥


सभी मिल के दैत्यों का संहार कर दो
सभी अपने अंशो का विस्तार कर दो॥


दोहा :
इतना कहते ही हुआ भारी शब्द अपार
प्रगटी देवी चंडिका रूप भयानक धार॥


घोर शब्द से गरज कर कहा शंकर से जाओ
बनो दूत, सन्देश यह दैत्यों को पहुंचाओ॥


जीवत रहना चाहते हो तो जा बसे पाताल
इन्द्र को त्रिलोक का दें वह राज्य सम्भाल॥


नहीं तो आयें युद्ध में तज जीवन की आस
इनके रक्त से बुझेगी मह्काली की प्यास॥


शिव को दूत बनाने से शिवदूती हुआ नाम
इसी चंडी महामाया ने किया घोर संग्राम॥


दैत्यों ने शिव शम्भू की मानी एक ना बात
चले युद्ध करने सभी लेकर सेना साथ॥


आसुरी सेना ने तभी ली सब शक्तियां घेर
चले तीर तलवार तब हुई युद्ध की छेड़॥


दैत्यों पर सब देवियां करने लगी प्रहार
क्षण भर में होने लगा असुर सेना संहार॥


दसों दिशओं में मचा भयानक हाहाकार
नव दुर्गा का छा रहा था वह तेज अपार॥


सुन काली की गर्जना हए व्याकुल वीर
चंडी ने त्रिशूल से दिए कलेजे चीर॥


शिवदूती ने कर लिए भक्षण कई शरीर
अम्बा की तलवार ने कीने दैत्य अधीर॥


यह संग्राम देख गया दैत्य खीज
तभी युद्ध करने बढ़ा रक्तबीज॥


गदा जाते ही मारी बलशाली ने
चलाये कई बाण तब काली ने॥


लगे तीर सीने से वापस फिरे
रक्तबीज के रक्त कतरे गिरे॥


रुधिर दैत्य का जब जमीं पर बहा
हुए प्रगट फिर दैत्य भी लाखहा॥


फिर उनके रक्त कतरे जितने गिरे
उन्हीं से कई दैत्य पैदा हुए॥


यह बढ़ती हुई सेना देखी जभी
तो घबरा गए देवता भी सभी॥


विकल हो गई जब सभी शक्तियां
तो चंडी ने महा कालिका से कहा॥


करो अपनी जीभा का विस्तार तुम
फैलाओ यह मुहं अपना एक बार तुम॥


मेरे शस्त्रों से लहू जो गिरे
वह धरती के बदले जुबां पर पड़े॥


लहू दैत्यों का सब पिए जाओ तुम
ये लाशें भी भक्षण किये जाओ तुम॥


न इसका जो गिरने लहू पायेगा
तो मारा असुर निश्चय ही जायेगा॥


दोहा :
इतना सुन महाकाली ने किया भयानक वेश
गर्ज से घबराकर हुआ व्याकुल दैत्य नरेश॥


रक्तबीज ने तब किया चंडी पर प्रहार
रोक लिया त्रिशूल से जगदम्बे ने वार॥


तभी क्रोध से चंडिका आगे बढ़ कर आई
अपने खड्ग से दैत्य की गर्दन काट गिराई॥


शीश कटा तो लहू गिरा चामुंडा गई पी
रक्तबीज के रक्त से सके न निश्चर जी॥


महाकाली मुहं खोल के धाई
दैत्य के रुधिर से प्यास बुझाई॥


धरती पे लहू गिरने ना पाया
खप्पर भर पी गई महामाया॥


भयो नाश तब रक्तबीज का
नाची तब प्रसन्न हो कालिका॥


असुर सेना सब दी संघारी
युद्ध में भयो कुलाहल भारी॥


देवता गण तब अति हर्षाये
धरयो शीश शक्ति पद आये॥


कर जोड़े सब विनय सुनाये
महामाया की स्तुति गाये॥


चंडिका तब दीनो वारदान
सब देवन का कियो कल्याण॥


ख़ुशी से नृत्य किया शक्ति ने
वर यह दिया शक्ति ने॥


जो यह पाठ पढ़े या सुनाये
मनवांछित फल मुझ से पाए॥


उसके शत्रु नाश करूंगी
पूरी उसकी आस करुँगी॥


माँ सम पुत्र को मैं पालूंगी
सभी भंडारे भर डालूंगी॥


दोहा :
तीन काल है सत्य यह शक्ति का वरदान
नव दुर्गा के पाठ से है सब का कल्याण॥


भक्ति शक्ति मुक्ति का है यही भंडार
इसी के आसरे हो भवसागर पार॥


नवरात्रों मै जो पढ़े देवी के मंदिर जाए
कहे मारकंडे ऋषि मनवांछित फल पाए॥


वरदाती वरदायनी सब की आस पूजाए
प्रेम सहित महामाया की जो भी स्तुति गाए॥


सिंह सवारी मईया जी मन मंदिर जब आये
किसी भी संकट मे पड़ा भक्त नहीं घबराए॥


किसी जगह भी शुद्ध हो पढ़े या पाठ सुनाये
भवानी की कृपा उस पर ही हो जाये॥


नव दुर्गा के पाठ का आठवां यह अध्याय
निशदिन पढ़े जो प्रेम से शत्रु नाश हो जाये॥

दुर्गा सप्तशती : नौवां अध्याय


राजा बोला ऐ ऋषि महिमा सुनी अपार
रक्तबीज को युद्ध में चंडी दिया संहार॥

कहो ऋषिवर अब मुझे शुम्भ निशुम्भ का हाल
जगदम्बे के हाथों से आया कैसे काल॥

ऋषिराज कहने लगे राजन सुन मन लाये
दुर्गा पाठ का कहता हूं अब मैं नवम अध्याय॥

रक्तबीज को जब शक्ति ने रण में मारा
चला युद्ध करने निशुम्भ ले कटक अपारा॥

तभी चढ़ा महाकाली को भी क्रोध घनेरा॥

महा पराक्रमी शुम्भ लिए सेना को आया
गदा उठा कर महा चंडी को मारण धाया॥

देवी और दैत्यों के तीर लगे फिर चलने
बड़े-बड़े बलवान लगे मिट्टी में मिलने॥

रण में लगी चमकाने वो तीखी तलवारें
चारों तरफ लगी होने भयंकर ललकारें॥

दैत्य लगा रण भूमि में माया दिखलाने
क्षण भर में वह योद्धा सारे मार गिराए॥

शुम्भ ने अपनी गदा घुमा देवी पर डाली
काली ने तीखी त्रिशूल से काट वह डाली॥

सिंह चढ़ी अम्बा ने कर प्रलय दिखलाई
चंडी के खड्ग ने हा हा कार मचाई॥

भर भर खप्पर दैत्यों का लहू पी गई काली
पृथ्वी और आकाश में छाई खून की लाली॥

अष्टभुजी ने शुम्भ के सीने मारा भाला
दैत्य को मूर्छित करके उसे पृथ्वी पर डाला॥

शुम्भ गिरा तो चला निशुम्भ भरा मन क्रोधा
अट्टाहास कर गरजा वह बलशाली योद्धा॥

अष्टभुजी ने दैत्य की मारा छाती तीर
हुआ प्रगट फिर दूसरा छाती से बलबीर॥

दोहा:-
बढ़ा वह दुर्गा की तरफ हाथ लिए हथियार
खड्ग लिए चंडी बढ़ी किये दैत्य संहार॥

शिवदूती ने खा लिए सेना के सब वीर
कौमारी छोड़े तभी धनुष से लाखों तीर॥

ब्रह्माणी ने मन्त्र पढ़ फेंका उन पर नीर
भस्म हुई सैना सभी देवं बांधा धीर॥

सैना सहित निशुम्भ का हुआ रण मे संहार
त्रिलोकी में मच गया माँ का जय जय कार॥

'भक्त' नवम अध्याय की कथा कही सुखसार
पाठ मात्र से मिटे विषम कष्ट अपार॥

दुर्गा सप्तशती : दसवां अध्याय


ऋषिराज कहने लगे मारा गया निशुम्भ
क्रोध भरा अभिमान से बोला भाई शुम्भ॥

अरी चतुर दुर्गा! तुझे लाज जरा ना आये
करती है अभिमान तू बल औरों का पाए॥

जगदाती बोली तभी दुष्ट तेरा अभिमान
मेरी शक्ति को भला सके कहां पहचान॥

मेरा ही त्रिलोक में है सारा विस्तार
मैंने ही उपजाया है यह सारा संसार॥

चंडी काली, ऐन्द्री, सब हैं मेरे रूप
एक हूं मैं अम्बिका मेरे सभी स्वरूप॥

मैं ही अपने रूपों में एक जान हूं
अकेली महा शक्ति बलवान हूं॥

चढ़ी सिंह पर दाती ललकारती
भयानक अति रूप थी धारती॥

बढ़ा शुम्भ आगे गरजता हुआ
गदा को घुमाता तरजता हुआ॥

तमाशा लगे देखने देवता
अकेला असुर राज था लड़ रहा॥

अकेली थी दुर्गा इधर लड़ रही
वह हर वर पर आगे थी बढ़ रही॥

असुर ने चलाये हजारों ही तीर
जरा भी हुई ना वह मैया अधीर॥

तभी शुम्भ ने हाथ मुगदर उठाया
असुर माया कर दुर्गा पर वह चलाया॥

तो चक्र से काटा भवानी ने वो
गिरा धरती पे हो के वह टुकड़े दो॥

उड़ा शुम्भ आकाश में आ गया
वह उपर से प्रहार करने लगा॥

तभी की भवानी ने उपर निगाह
तो मस्तक का नेत्र वही खुल गया॥

हुई ज्वाला उत्पन्न बनी चंडी वो
उड़ी वायु में देख पाखंडी को॥

फिर आकाश में युद्ध भयंकर हुआ
वहा चंडी से शुम्भ लड़ता रहा॥

दोहा :-
मारा रणचंडी ने तब थप्पड़ एक महान
हुआ मूर्छित धरती पे गिरा शुम्भ बलवान॥

जल्दी उठकर हो खड़ा किया घोर संग्राम
दैत्य के उस पराक्रम से कांपे देव तमाम॥

बढ़ा क्रोध में अपना मुहं खोल कर
गरज कर भयानक शब्द बोल कर॥

लगा कहने कच्चा चबा जाऊंगा
निशां आज तेरा मिटा जाऊंगा॥

क्या सन्मुख मेरे तेरी औकात है
तरस करता हूं नारी की जात है॥

मगर तूने सेना मिटाई मेरी
अग्न क्रोध तूने बढ़ाई मेरी॥

मेरे हाथों से बचने न पाओगी
मेरे पावों के नीचे पिस जाओगी॥

यह कहता हुआ दैत्य आगे बढ़ा
भवानी को यह देख गुस्सा चढ़ा॥

चलाया वो त्रिशूल ललकार कर
गिरा काट के सिर दिया का धरती पर॥


किया दुष्ट असुरों का मां ने संहार
सभी देवताओं ने किया जय-जयकार॥

ख़ुशी से वे गंधर्व गाने लगे
नृत्य करके मां को रिझाने लगे॥

'भक्त' चरणों में सिर झुकाते रहे
वे वरदान मैया से पाते रहे॥

यही पाठ है दसवें अध्याय का
जो प्रीति से पढ़ श्रद्धा से गाएगा॥

वह जगदम्बे की भक्ति पा जायेगा
शरण में जो मैया की आ जायेगा॥

दोहा:-
आध भवानी की कृपा, मनो कामना पाए
'भक्त' जो दुर्गा पाठ को पढ़े सुने और गाए॥

कालिकाल विकराल में जो चाहो कल्याण
श्री दुर्गा स्तुति का करो पाठ 'भक्त' दिन रैन
कृपा से आद भवानी की मिलेगा सच्चा चैन॥


दुर्गा सप्तशती : ग्यारहवां अध्याय



ऋषिराज कहने लगे सुनो ऐ पृथ्वी नरेश
महाअसुर संहार से मिट गए सभी कलेश॥

इन्द्र आदि सभी देवता टली मुसीबत जान
हाथ जोड़कर अम्बे का करने लगे गुणगान॥


तू रखवाली मां शरणागत की करे
तू भक्तों के संकट भवानी हरे॥

तू विशवेश्वरी बन के है पालती
शिवा बन के दुःख सिर से है टालती॥

तू काली बचाए महाकाल से
तू चंडी करे रक्षा जंजाल से॥

तू ब्रह्माणी बन रोग देवे मिटा
तू तेजोमयी तेज देती बढ़ा॥

तू मां बनके करती हमें प्यार है
तू जगदम्बे बन भरती भंडार है॥

कृपा से तेरी मिलते आराम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं॥

तू त्रयनेत्र वाली तू नारायणी
तू अम्बे महाकाली जगतारिणी॥

गुने से है पूर्ण मिटाती है दुःख
तू दासों को अपने पहुंचाती है सुख॥

चढ़ी हंस वीणा बजाती है तू
तभी तो ब्रह्माणी कहलाती है तू॥

वाराही का रूप तुमने बनाया
बनी वैष्णवी और सुदर्शन चलाया॥

तू नरसिंह बन दैत्य संहारती
तू ही वेदवाणी तू ही स्मृति॥

कई रूप तेरे कई नाम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं

तू ही लक्ष्मी श्रद्धा लज्जा कहावे
तू काली बनी रूप चंडी बनावे॥

तू मेघा सरस्वती तू शक्ति निद्रा
तू सर्वेश्वरी दुर्गा तू मात इन्द्रा॥

तू ही नैना देवी तू ही मात ज्वाला
तू ही चिंतपूर्णी तू ही देवी बाला॥

चमक दामिनी में है शक्ति तुम्हारी
तू ही पर्वतों वाली माता महतारी॥

तू ही अष्टभुजी माता दुर्गा भवानी
तेरी माया मैया किसी ने ना जानी॥

तेरे नाम नव दुर्गा सुखधाम हैं
हे माता तुम्हें लाखों प्रणाम हैं॥

तुम्हारा ही यश वेदों ने गाया है
तुझे भक्तों ने भक्ति से पाया है॥

तेरा नाम लेने से टलती बलाएं
तेरे नाम दासों के संकट मिटायें॥

तू महामाया है पापों को हरने वाली
तू उद्धार पतितों का है करने वाली॥

दोहा :-
स्तुति देवों की सुनी माता हुई कृपाल
हो प्रसन्न कहने लगी दाती दीन दयाल॥

सदा दासों का करती कल्याण हूं
मैं खुश हो के देती यह वरदान हूं॥

जभी पैदा होंगे असुर पृथ्वी पर
तभी उनको मारूंगी मैं आन कर॥

मैं दुष्टों के लहू का लगाऊंगी भोग
तभी रक्तदन्तिका कहेंगे यह लोग॥

बिना गर्भ अवतार धारुंगी मैं
तो शताक्षी बन निहारूंगी मैं॥

बिना वर्षा के अन्न उपजाउंगी
अपार अपनी शक्ति मैं दिखलाऊंगी॥

हिमालय गुफा में मेरा वास होगा
यह संसार सारा मेरा दास होगा॥

मैं कलयुग में लाखों फिरूं रूप धारी
मेरी योगिनियां बनेंगी बीमारी॥

जो दुष्टों के रक्त को पिया करेंगी
यह कर्मों का भुगतान किया करेंगी॥

दोहा :-
'भक्त' जो सच्चे प्रेम से शरण हमारी आये
उसके सारे कष्ट मैं दूंगी आप मिटाए॥

प्रेम से दुर्गा पाठ को करेगा जो प्राणी
उसकी रक्षा सदा ही करेगी महारानी॥


बढ़ेगा चौदह भवन में उस प्राणी का मान
'भक्त' जो दुर्गा पाठ की शक्ति जाये जान॥

एकादश अध्याय में स्तुति देवं कीन
अष्टभुजी माँ दुर्गा ने सब विपदा हर लीन॥

भाव सहित इसको पढ़ो जो चाहे कल्याण
मुह मांगा देती है दाती वरदान॥


दुर्गा सप्तशती : बारहवां अध्याय


द्वादश अध्याय में है माँ का आशीर्वाद
सुनो राजा तुम मन लगा देवी देव संवाद ॥


महालक्ष्मी बोली तभी करे जो मेरा ध्यान
निशदिन मेरे नामों का जो करता है गान ॥


बाधायें उसकी सभी करती हूं मैं दूर
उसके ग्रह सुख सम्पति भरती हूं भरपूर ॥


अष्टमी नवमी चतुर्दर्शी करके एकाग्रचित
मन कर्म वाणी से करे पाठ जो मेरा नित ॥


उसके पाप व् पापों से उत्पन्न हुए क्लेश
दुःख दरिद्रता सभी मैं करती दूर हमेश ॥


प्रियजनों से होगा ना उसका कभी वियोग
उसके हर एक काम में दूँगी मैं सहयोग ॥


शत्रु, डाकू, राजा और शस्त्र से बच जाये
जल में वह डूबे नहीं न ही अग्नि जलाए ॥


भक्ति पूर्वक पाठ जो पढ़े या सुने सुनाये
महामारी बीमारी का कष्ट ना कोई आये ॥


जिस घर में होता रहे मेरे पाठ का जाप
उस घर की रक्षा करूं मिटे सभी संताप ॥


ज्ञान चाहे अज्ञान से जपे जो मेरा नाम
हो प्रसन्न उस जीव के करूं मैं पूरे काम ॥


नवरात्रों में जो पढ़े पाठ मेरा मन लाये
बिना यत्न किये सभी मनवांछित फल पाए ॥


पुत्र पौत्र धन धाम से करूं उसे सम्पन्न
सरल भाषा का पाठ जो पढ़े लगा कर मन ॥


बुरे स्वप्न ग्रह दशा से दूँगी उसे बचा
पढ़ेगा दुर्गा पाठ जो श्रद्धा प्रेम बढ़ा ॥


भूत प्रेत पिशाचिनी उसके निकट ना आये
अपने दृढ़ विश्वास से पाठ जो मेरा गाए ॥


निर्जन वन सिंह व्याघ से जान बचाऊं आन
राज्य आज्ञा से भी ना होने दूं नुक्सान ॥


भंवर से भी बाहर करूं लम्बी भुजा पसार
'भक्त' जो दुर्गा पाठ पढ़ करेगा प्रेम पुकार ॥


संसारी विपत्तियां देती हूं मैं टाल
जिसको दुर्गा पाठ का रहता सदा ख्याल ॥


मैं ही रिद्धि -सिद्धि हूं महाकाली विकराल
मैं ही भगवती चंडिका शक्ति शिवा विशाल ॥


भैरो हनुमत मुख्य गण हैं मेरे बलवान
दुर्गा पाठी पे सदा करते कृपा महान ॥


इतना कह कर देवी तो हो गई अंतरध्यान
सभी देवता प्रेम से करने लगे गुणगान ॥


पूजन करे भवानी का मुहं मांगा फल पाए
'भक्त' जो दुर्गा पाठ को नित श्रद्धा से गाए ॥


वरदाती का हर समय खुला रहे भंडार
इच्छित फल पाए 'भक्त' जो भी करे पुकार ॥


इक्कीस दिन इस पाठ को कर ले नियम बनाये
हो विश्वास अटल तो वाकया सिद्ध हो जाये ॥


पन्द्रह दिन इस पाठ में लग जाये जो ध्यान
आने वाली बात को आप ही जाए जान ॥


नौ दिन श्रद्धा से करे नव दुर्गा का पाठ
नवनिधि सुख सम्पति रहे वो शाही ठाठ ॥


सात दिनों के पाठ से बलबुद्धि बढ़ जाये
तीन दिनों का पाठ ही सारे पाप मिटाए ॥


मंगल के दिन माता के मन्दिर करे ध्यान
'भक्त' जैसी मन भावना वैसा हो कल्याण ॥


शुद्धि और सच्चाई हो मन में कपट ना आये
तज कर सभी अभिमान न किसी का मन कलपाये ॥


सब का कल्याण जो मांगेगा दिन रैन
काल कर्म को परख कर करे कष्ट को सहन ॥


रखे दर्शन के लिए निस दिन प्यासे नैन
भाग्यशाली इस पाठ से पाए सच्चा चैन ॥


द्वादश यह अध्याय है मुक्ति का दातार
'भक्त' जीव हो निडर उतरे भव से पार ॥

दुर्गा सप्तशती : तेरहवां अध्याय


ऋषिराज कहने लगे मन में अति हर्षाए
तुम्हे महातम देवी का मैंने दिया सुनाए॥

आदि भवानी का बड़ा है जग में प्रभाओ
तुम भी मिल कर वैश्य से देवी के गुण गाओ॥

शरण में पड़ो तुम भी जगदम्बे की
करो श्रद्धा से भक्ति माँ अम्बे की॥

यह मोह ममता सारी मिटा देवेगी
सभी आस तुम्हारी पूजा देवेगी ॥

तुझे ज्ञान भक्ति से भर देवेगी
तेरे काम पुरे यह कर देवेगी॥

सभी आसरे छोड़ गुण गाइयो
भवानी की ही शरण में आइओ॥

स्वर्ग मुक्ति भक्ति को पाओगे तुम
जो जगदम्बे को ही ध्याओगे तुम॥

दोहा:-
चले राजा और वैश्य यह सुनकर सब उपदेश
आराधना करने लगे बन में सहे क्लेश॥


मारकंडे बोले तभी सुरथ कियो तप घोर
राज तपस्या का मचा चहुं ओर से शोर॥

नदी किनारे वैश्य ने डेरा लिया लगा
पूजने लगे वह मिटटी की प्रीतिमा शक्ति बना॥


कुछ दिन खा फल को किया तभी निराहार
पूजा करते ही दिए तीन वर्ष गुजार ॥

हवन कुंड में लहू को डाला काट शरीर
रहे शक्ति के ध्यान में हो आर अति गंभीर॥


हुई चंडी प्रसन्न दर्शन दिखाया
महा दुर्गा ने वचन मुहं से सुनाया ॥

मै प्रसन्न हूं मांगो वरदान कोई
जो मांगोगे पाओगे तुम मुझ से सोई॥


कहा राजा ने मुझ को तो राज चाहिए
मुझे अपना वही तख़्त ताज चाहिए ॥

मुझे जीतने कोई शत्रु ना पाए
कोई वैरी माँ मेरे सन्मुख ना आये॥


कहा वैश्य ने मुझ को तो ज्ञान चाहिए
मुझे इस जन्म में ही कल्याण चाहिए॥

दोहा:-
जगदम्बे बोली तभी राजन भोगो राज
कुछ दिन ठहर के पहनोगे अपना ही तुम ताज॥


सूर्य से लेकर जन्म स्वर्ण होगा तव नाम
राज करोगे कल्प भर, ऐ राजन सुखधाम॥

वैश्य तुम्हे मै देती हूं, ज्ञान का वह भंडार
जिसके पाने से ही तुम होगे भव से पार॥


इतना कहकर भगवती हो गई अंतरध्यान
दोनों भक्तों का किया दाती ने कल्याण॥

नव दुर्गा के पाठ का तेरहवां यह अध्याय
जगदम्बे की कृपा से भाषा लिखा बनाये॥


माता की अदभुत कथा 'भक्त' जो पढ़े पढ़ाये
सिंह वाहिनी दुर्गा से मन वांछित फल पाए॥

ब्रह्मा विष्णु शिव सभी धरे दाती का ध्यान
शक्ति से शक्ति का ये मांगे सब वरदान॥


अम्बे आध भवानी का यश गावे संसार
अष्टभुजी माँ अम्बिके भरती सदा भंडार ॥

दुर्गा स्तुति पाठ से पूजे सब की आस
सप्तशती का टीका जो पढ़े मान विश्वास ॥


अंग संग दाती फिरे रक्षा करे हमेश
दुर्गा स्तुति पढ़ने से मिटते 'भक्त' क्लेश॥