स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 2
१८१४ के आस पास वहां के जमीदार रामानंद राय जो कि बहुत ही घमंडी और लालची प्रकृति का व्यक्ति था। उसी गांव के किसी व्यक्ति पर झूठी नालिश कर दी - उसे भी पता था कि सब जानते हैं यह मुकदमा झूठा है किन्तु यदि कोई ऐसा व्यक्ति गवाही दे दे जिसकी बात पर किसी को शंशय ना हो तो यह मुकदमा जीता जा सकता है। इस काम के लिए उसे खुदीराम जी से उपयुक्त और कोई व्यक्ति नजर नहीं आया - उसने खुदीराम जी को अपने पक्ष में गवाही देने के लिए कहा -!
खुदीराम जी को भला ये कैसे गवारा होता कि उनके झूठी गवाही देने के कारण किसी को बेघर होना पड़ जाये अतः उन्होंने गवाही देने से मना कर दिया।
इस बात ने जमीदार को इतना रुष्ट कर दिया कि उसने खुदीराम जी पर ही नालिश (मुकदमा) कर दिया और उसने वह मुकदमा जीत भी लिया - देखते ही देखते पूरा परिवार रास्ते पर आ गया - घर और जमीने सब कुर्क हो गयीं और उन पर उस लालची जमीदार का आधिपत्य हो गया इस घटना के समय खुदीराम जी की अवस्था ४० वर्ष हो चुकी थी।
हालाँकि इस घटना के विरोध में मानसिक रूप से तो पूरा गांव ही खुदीराम जी के पक्ष में था किन्तु खुले रूप से जमीदार का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी और इस भौतिक जगत में भौतिक समर्थन के बिना जीवन यापन असंभव है।
अब खुदीराम जी के पास गांव छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय ना था और इस घटना की चर्चा आस-पास के क्षेत्र में थी दबी जुबान से सभी जमीदार को कोस रहे थे।
उसी समय खुदीराम जी के मित्र सुखलाल गोस्वामी (जो कि कामारपुकुर में रहते थे) ने खुदीराम जी को अपने यहाँ रहने को आमंत्रित किया - हालाँकि सामान्य दशा होती तो शायद खुदीराम जी इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार ना करते किन्तु बेघर होने की दशा में परिवार के लिए एक छत की आवश्यकता तो थी ही कम से कम। इसी वजह से साभार उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अपने इष्ट एवं माता शीतला सहित देरे गांव को छोड़कर कामारपुकुर गांव में रहने लगे - सुखलाल जी बहुत मानते थे खुदीराम जी को उन्हें भी बहुत ख़ुशी हुयी कि उनका मित्र उनके पास ही रहेगा - जीवन यापन हेतु डेढ़ बीघे जमीन भी उन्होंने खुदीराम जी के नाम लिख दी।
किसी प्रकार से जीवन आगे बढ़ने लगा कभी खाकर तो कभी भूखे रहकर लेकिन फिर भी उफ़ नहीं की सब कुछ श्रीराम जी की कृपा मानकर स्वीकार कर लिया।
पहले शुरुवात में बहुधा चंद्रमणि जी यदि खुदीराम जी से कहतीं कि घर में खाने को कुछ नहीं है इत्यादि तो खुदीराम जी बोल देते "यदि श्रीराम जी की यही इच्छा है कि वे आज उपवास पर रहें तो भला उन्हें क्या समस्या ? वे भी इष्ट के साथ उपवास कर लेंगे"
धीरे-धीरे चंद्रमणि जी भी अभ्यस्त होती गयीं और सब कुछ श्रीराम जी के ऊपर ही छोड़ दिया कि वे जैसा चाहेंगे वही उचित होगा।
इसी क्रम में एक बार वे कहीं पास के गांव में गए थे वापस आते समय एक वट वृक्ष के नीचे आराम करने लगे और उनकी आँख लग गयी तो क्या देखते हैं कि उनके इष्ट - उनके स्वामी भगवान राम बालवेश में उनके समक्ष खड़े हुए उन्हें निहार रहे हैं और ऊँगली से इशारा करते हुए कहते हैं " बाबा मैं इस जगह कब से अकेला पड़ा हूँ - भूखा और प्यासा - मुझे ले चलो अपने घर - आपकी सेवा ग्रहण करने की और आपके हाथों भोग ग्रहण करने की बड़ी इच्छा है मेरी "
भगवान की ऐसी लीला देखकर झटके से उनकी आँख खुल गयी - नेत्रों से अश्रुप्रवाह होने लगा - हृदय में राम ही राम का सुमिरण चल पड़ा।
मन ही मन इस स्वप्न के बारे में विचार करने लगे कि कैसा अद्भुत स्वप्न था - तभी उनकी नजर सामने गयी तो उसी प्रकार का स्थल सामने था जैसा श्री राम जी ने बालरूप में स्वप्न में इंगित किया था - झट से उठ खड़े हुए और पास जाकर देखा तो एक सुन्दर और मनमोहक शालिग्राम शिला पड़ी हुयी है और उस शिला के नजदीक ही एक भुजंग फन उठाये विराजमान है।
जैसे ही खुदीराम जी की आँखें उस भुजंग से मिलीं वह भुजंग स्वतः ही आगे बढ़ लोप हो गया - खुदीराम जी ने झट वह शिला उठाई - भाव आ गया और भावावेश में ही अश्रुजल से अभिषेक होने लगा - खुदीराम जी समझ गए यह रघुवीर शिला है। उस शिला को लेकर वे घर आ गए और विधिवत उसकी स्थापना कर सदा ही उसकी पूजा करने लगे।
शनैः शनैः दुर्दिन समाप्त होने लगे और अब जो खेत उन्हें सुखलाल जी के द्वारा प्रदान किये गए थे उनमे इतना धान्य उत्पन्न होने लगा था कि भोजन की समस्या समाप्त होने लगी थी।
अब इस समस्त रचना में कहीं-कहीं उल्लिखित पात्रों एवं अन्य परिवारीजनों का एक संक्षिप्त सा विवरण लेते हैं।
जैसे कि पूर्व में ही चर्चा कर चुके हैं कि खुदीराम जी की एक बहन भी थीं जिनका ना रामशीला था - उनका विवाह छिलिमपुर के भागवत बंदोपाध्याय जी के साथ हुआ था उनके एक पुत्र जिसका नाम रामचाँद तथा एक पुत्री थी जिसका नाम हेमांगनी था।
रामचाँद मेदिनीपुर में वकालत के पेशे में थे और उनका अत्यधिक प्रेम अपने मामाओं के साथ था तथा उनकी अच्छी कमाई थी। दुर्दिनों के समय में वे खुदीराम जी को 15 रुपये प्रतिमास तथा निधि और कनाई राम को दस-दस रुपये प्रतिमास देने लगे थे।
हेमांगिनी का विवाह शिहड़ गांव के निवासी श्रीकृष्ण चंद्र मुखर्जी के साथ हुआ था तथा इन्हे चार पुत्रों की प्राप्ति हुयी थी
- राघव
- रामरतन
- हृदयराम
- राजाराम
जिनमे से हृदयराम का उल्लेख बारम्बार होगा - ठाकुर के प्रारंभिक दिनों से लेकर लम्बे समय तक ह्रदय उनके साथ रहा।
खुदीराम जी के भाई निधिराम के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु कनाई राम दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुयी थी जिनके नाम क्रमशः :
- हलधारी (रामतारक)
- कालिदास
क्रमशः....................
माता महाकाली शरणम्
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