Tuesday 29 May 2018

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा भाग-10 ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा भाग 10




हमारे बड़े हो जाने पर भी वह पूर्व की ही भांति हमारे यहाँ आता जाता था, वह हमारे पिता का बड़ा दुलारा था और हमारे पिता अपने इष्ट की ही भांति गदाधर की भक्ति करते थे ।
मुहल्ले के कई लोग प्रायः पिताजी से कहा करते थे कि तुम्हारे घर की लड़कियां अब बड़ी हो गईं हैं इसलिए गदाधर का हमेशा आना जाना उचित नहीं है ।

इस पर पिताजी कह दिया करते थे कि इसकी चिंता तुम मत करो, मैं गदाधर को भी अच्छी तरह से जानता हूँ और अपने घर की कन्यायों को भी भली प्रकार जानता हूँ ।

गदाधर हमारे यहाँ आकर विभिन्न पौराणिक कथाएं कहता, भजन गाता और हंसी मजाक करते हुए सबको हंसाता रहता था ।

और इस प्रकार हम उसकी बातों और भक्ति चर्चा का आनंद लेते हुए अपने काम निबटाती रहती थीं, उसके पास रहने से समय का पता ही नहीं चलता था ।

यदि किसी दिन वह नहीं आता था तो हममे से कोई जाकर उसकी खोज खबर ले आती थी कि वह सकुशल है ।

गदाधर बचपन से ही देवी-देवताओं की बहुत सुन्दर मूर्तियाँ एवं चित्र बनाता था और मूर्ति निर्माण के उपरांत उनकी पूजा-अर्चना किया करता था ।

इस प्रकार बाल सुलभ लीलाएं और मस्ती करते हुए तीन साल और बीत गए, और गदाधर अब सत्रहवें वर्ष में प्रवेश कर चुका था उधर रामकुमार जी के अथक परिश्रम से उनकी पाठशाला बहुत अच्छी चल निकली और उसमे उन्हें आय भी बहुत अच्छी होने लगी थी इस बीच वे वर्ष में एक बार कामारपुकुर आकर कुछ दिन वहां बिताते थे।

गदाधर को विद्यार्जन में उदासीन देखकर उन्हें बड़ी चिंता होती थी, १८५३ में जब वे कामारपुकुर आये तो इस विषय में रामेश्वर और चंद्रा देवी से बात करने के बाद गदाधर को भी साथ ले जाना निर्धारित हुआ वैसे भी रामकुमार वहां अकेले ही रहते थे और इस वजह से उन्हें घर के काम करते हुए पाठ शाळा चलाने में काफी परेशानी होती थी।

अतः यही सोचकर यह निर्णय लिया गया कि गदाधर के साथ रहने से रामकुमार को भी थोड़ी राहत मिलेगी एवं रामकुमार के साथ रहने कि वजह से गदाधर का विद्याध्ययन भी सुचारू हो सकेगा, इस विषय में जब गदाधर कि राय मांगी गयी तो वह तुरंत राजी हो गया उसकी भी प्रायः यही सोच थी कि इसी बहाने पिता तुल्य भाई की कुछ सहायता करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, अस्तु शीघ्र ही गदाधर और रामकुमार दोनों अपने कुलदेवता और माता की वंदना करके कलकत्ते के लिए प्रस्थान कर गए. इधर गदाधर के जाते ही कामारपुकुर का हाल और आनंद की हाट उजाड़ पड़ गयी अब सभी उसके चाहने वाले उसकी गुजरी हुयी बातों का स्मरण करते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ने लगे।

इधर गदाधर ने यहाँ भी अपने बालगोपालों की टीम बना ली हालाँकि उसका मन पढाई में नहीं लगा, रामकुमार जी ने जो पाठशाला जिस मुहल्ले में खोल रखी थी वहीं पर उन्होंने कुछ घरों में पूजा-पाठ के कार्यों को करने की जिम्मेदारी भी उठा रखी थी परन्तु अधिक काम की वजह से पूजादि के कार्यों के लिए समय बहुत ही कम निकल पाता था जिसकी वजह से रामकुमार जी ने वह जिम्मेदारी गदाधर को सौंप दी।

गदाधर ने अपने मधुर व्यवहार और देवभक्ति आदि की वजह से सभी यजमानों को अति प्रिय होता चला गया।

किन्तु शिक्षा में उदासीन रहने की वजह से एक दिन रामकुमार ने थोडा कड़े शब्दों में गदाधर को कहा जिसके जवाब में बड़ी शालीनता पूर्वक गदाधर ने जवाब दिया “मुझे दालरोटी की चिंता करने और कमाने वाली विद्या नहीं चाहिए, मैं तो उस विद्या की तलाश में हूँ जिससे ह्रदय का ज्ञान उदय हो और जिससे प्राणी मात्र कृतार्थ हो जाता है।

जीवन मंथर गति से चलता रहा और रामकुमार की आर्थिक स्थिति पुनः गिरने लगी और विद्यालय में छात्रों की संख्या गिरने लगी, अनेक प्रयास करने पर भी सुधार होने की कोई गुंजाईश नजर नहीं आ रही थी अतः उनके मन में अब विचार आने लगा था कि शायद इस विद्यालय को अब बंद करना होगा।

जानबाजार और रानी रासमणि:

कलकत्ते में इधर तो राकुमार अपनी आय और गृहस्थी की चिंता में घुले जा रहे थे और उधर गदाधर के जीवन के उत्तर भाग की भूमिका दखिनेश्वर के रूप में निर्मित होने जा रही थी जिसकी नींव कुछ इस तरह तय हो रही थी।

कलकत्ता के दक्षिण भाग में जान बाजार नमक मुहल्ले में रानी रासमणि का निवास अर्थात महल था वहां के राजा रामचंद्र दास जो धीवर जाति के थे अपने पीछे चौवालिस वर्षीय रानी रासमणि और चार कन्याओं को छोड़ स्वर्ग सिधार गए थे और इस प्रकार से अपार संपत्ति और राज के प्रबंध की सम्पूर्ण जिम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गयी थी।

वहीँ पास में ही अंग्रेजी फ़ौज की छावनी थी जिसमें अंग्रेज सिपाही रहते थे, और जैसा कि सर्वविदित है अंग्रेजों की नीति येन-केन प्रकारेण बहाने बनाकर उन बहानों की आड़ में राज्यों को हड़पने का कुचक्र चलता ही रहता था और शायद इसी भावना से या फिर संयोगवश एक दिन कुछ सिपाहियों ने मदिरा पान कर रखा था एवं रानी के दरबानों से व्यर्थ ही उलझ कर पूरा का पूरा जत्था राजमहल के अन्दर प्रवेश कर गया, इसकी भनक मिलते ही रानी रासमणि हथियारों से सुसज्जित होकर निकलीं तब तक जान बाजार में बात फ़ैल गयी और वहां के स्थानीय लोग भी एकत्र हो गया, सभी ने मिलकर उन सिपाहियों को अच्छी खबर ली।

रानी रासमणि माँ काली के चरणों में अत्यधिक प्रीत रखती थीं और इस बात का ज्ञान इसी हो जाता है कि उनकी राजकीय मुहर में "कालीपद अभिलाषी – रानी रासमणि दासी" खुदा हुआ था, ठाकुर कहा करते थे "तेजस्विनी रानी की सी भक्ति प्रायः देखने में नहीं आती – लोक कल्याण का कोई भी कार्य हो और यदि वह रानी के हाथों पूरा होना हो तो रानी रासमणि उसे पूरा करके ही मानती थी।"

क्रमशः 

माता महाकाली शरणम् 

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