Saturday 28 March 2020

बुधुआ तेरी भक्ति अमर - Spiritual Story


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बुधुआ तेरी भक्ति अमर
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"उठ ना अब" चिल्लाते हुए मघई काकी ने बुधुआ की चादर खींच फेंकी एक तरफ !

लेकिन यह क्या ? बुधुआ ने फिर से नीचे बिछाई हुयी चादर को आधी ओढ़कर दूसरी करवट ले ली।

यह हर रोज की ही किचकिच थी मघई काकी और बुधुआ के बीच।

असल में यह छोटा सा पहाड़ी गांव अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए दूर-दूर तक मशहूर है और यहाँ के निवासी भी मशहूर हैं अपने प्राकृतिक और सरल स्वभाव के लिए।

मघई काकी का परिवार भी कभी बहुत संपन्न घर माना जाता था लेकिन समय के बदलाव के साथ गोवर्धन काका की बीमारी और फिर वैद्य हकीमों की दुनिया के चक्कर में सब कुछ जैसे स्वप्न सा बिखरने लगा और बीमारी भी जैसे गोवर्धन काका को ले जाने के लिए ही हुयी थी और एक दिन काका इस नश्वर दुनिया को छोड़कर चल बसे।

मरने से पहले काका को अपने पुत्र बुधुआ से बहुत सी उम्मीदें थीं और काका की दिली ख्वाहिश थी कि अपने जीवन में जिस चीज को वे पूर्ण नहीं कर पाए वह बुधुआ पूरा करेगा।

काका को अपने जीवन में बस एक ही धुन थी की वे तंत्र-मंत्र के इतने बड़े विद्वान बनें कि आने वाली पीढियां उन्हें याद करें, खाने-पहनने की कोई समस्या थी नहीं इसलिए बस कभी इस ओझा तो कभी उस ओझा की शरण में पड़े रहते थे लेकिन किसी से उन्हें वह चीज नहीं मिली जिसके वो मुन्तजिर थे।

 एक ओझा बाबा थे उन्होंने काका की सेवा से खुश होकर कुछ सिद्धियां उन्हें हस्तगत कर दी थीं लेकिन टीले वाले भूत को सबक सिखाने के लिए शायद वे पर्याप्त नहीं थीं।  सौन्दर्य की खान इस गांव में एक ही काला साया था जिसका नाम आते ही गांव वालों का मूत निकल जाता था।

 प्रतिवर्ष कई लोगों के जीवन लील जाता था वह टीले वाला भूत और उसी के इलाज के लिए काका ने तंत्र मार्ग का रुख किया था और अपनी इस यात्रा में काका ने सिद्धियां पाने के बाद टीले पर जाकर उसे ललकार दिया, बताने वाले बताते हैं कि "ऐसा लगा था जैसे पूरा टीला ही उखड आया हो और पुरे गांव के ऊपर आसमान बनकर छा गया, दिन रात का भान नहीं रहा, लोग अपने घरों में दुबक गए थे, बस दो ही आवाजें सुनाई दे रही थीं एक काका की और दूसरी हवा की सांय-सांय की जो बवंडर की तरह आकर काका को अपनी लपेट में लेकर दूर फेंकने की कोशिश करती लेकिन काका अपने कौशल से पुनः सकुशल जमीन पर अपने पैरों पर खड़े नजर आते।

 कई बार आग के भभूके भी नजर आते थे लेकिन अगले ही पल वे भभूके काका से थोड़ा पहले ही गिर जाते थे।

 घंटों के निरंतर माया युद्ध के बाद काका आखिर फैसला हो ही गया कि वह भूत बहुत ही प्रबल और भयङ्कर है अंतिम पलटी के समय जब काका अपने कौशल से सकुशल जमीन पर खड़े हो पाते इससे पहले ही टीले के आकाश से ढेरों मिटटी काका के ऊपर गिरी और काका अपना संतुलन ना बनाये रख सके, भरभराकर जमीन पर गिरे और बस सारी माया ख़तम।

 टीला अपनी जगह, लोग अपनी जगह, धरती अपनी जगह, आसमान अपनी जगह बस कोई अगर अपनी जगह नहीं था तो वे गोवर्धन काका ही नहीं थे।

 मघई काकी ने पूरा गांव सर पर उठा लिया रो रोकर और किसके-किसके पैर नहीं पड़े लेकिन ना कोई कुछ कर सकता था और ना ही किसीने कुछ किया।

 सप्ताह भर बाद काका सुबह अपने बिस्तर पर आसक्त सी दशा में मिले थे और उस दिन के बाद उनका बोलना-चालना सब बंद हो गया था, बस एकटक शून्य को निहारते और यदि सामने बुधुआ पड़ जाता तो याचनात्मक दृष्टि से उसे निहारते, मानो कह रहे हों कि बुधुआ तू ही है जो मेरा बदला लेगा उस टीले वाले से।

बुधुआ शायद सब समझता था, लेकिन वही झंझावात उसके मस्तिष्क को भी अपने घेरे में लिए हुए था कि आखिर किस्से मदद मांगे और कौन उसे इस लायक बनाएगा कि वह काका को शांति पहुंचा सके।

 एक दिन बुधुआ घूमते घामते पड़ोस के गांव की टेकरी पर पहुँच गया तो देखता है कि एक आदमी टेकरी के मंदिर में बैठा कुछ कर रहा था, बुधुआ भी देखने के लोभ में ऐसी जगह जाकर खड़ा हुआ जहाँ से उसे सब स्पष्ट दिख सके।

 वह आदमी कुछ बुदबुदाता और वहीँ जमीन पर कुछ फेंक देता इसके बाद धुवें का एक गुबार सा उठता और फिर उस गुबार से बनती एक आकृति और कुछ पल के बाद फिर विलीन हो जाती।

 और अंत में तो कमाल ही हो गया वही टेकरी वाला भूत उस आदमी के सामने आ खड़ा हुआ और आते ही उस आदमी को किसी गुलाम की तरह प्रणाम कर रहा था।

आज बुधुआ का एक संदेह तो ख़तम हो गया था कि टीले वाला भूत  ही सबसे बड़ा है अब उसे भरोसा हो चला था कि टीले वाले भूत को भी हराया जा सकता है।

फिर बुधुआ ने देखा कि वह आदमी अंदर गया मंदिर के और वहां मंदिर के अंदर जो एक भयानक सी मूर्ति रखी थी उसके सामने वह व्यक्ति दंडवत लेट गया और किसी दीन-दास की तरह विनती करने लगा "हे माँ कालिके तेरे आदेशानुसार सब कुछ भली-भांति संपन्न हुआ और आशा है कि आने वाला समय शीघ्र ही शांति का होगा।"

बुधुआ को फिर एक झटका लगा और वह सोचने लगा "पहले टीले वाला भूत ही सर्वशक्तिमान था मेरी नजर में लेकिन फिर वह टीले वाला भूत जिस तरह इस व्यक्ति के सामने दास की भांति आ खड़ा हुआ उससे लग रहा था कि यह व्यक्ति उससे भी शक्तिशाली है किन्तु अब यह व्यक्ति जिस मूर्ति के सामने दासों की तरह पड़ा है तो इसका मतलब यह मूर्ति ही सर्वशक्तिमान है।"

 बुधुआ सरल व्यक्ति था गांव का उसे तो यह भी पता नहीं था कि उसे अब क्या करना चाहिए ?

 लेकिन उसे  एक बात पता थी कि यह व्यक्ति ही उसकी मदद कर सकता है और विचार आते ही वह भागकर पहुंचा उस व्यक्ति के पास और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

 उस व्यक्ति की नजर पड़ी बुधुआ पर तो अनायास ही वह मुस्कुरा उठा "आओ बुधुआ।"

बुधुआ हतप्रभ रह गया कि उस व्यक्ति को उसका नाम कैसे पता चला ?

 लेकिन फिर शीघ्र ही वह सम्भला और उसे उद्देश्य याद आ गया, उसने विनीत भाव से कहा कि " बाबा बहुत तलाश के बाद तुम मिले हो मुझे - कृपा करके मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे कि मैं उस टीले वाले भूत को पराजित कर अपने बाबा का बदला ले सकूँ।"

 उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए उस प्रतिमा की तरफ संकेत किया और कहा "वही है जो सब समस्यायों को जन्म  भी देती है एवं उनका नाश भी करती है।"

बुधुआ ने  कातर भाव से सीधे स्वभाव पूछा "बाबा अगर वह सब करती है तो फिर मेरे बाबा के मरने की जिम्मेदार भी वही हुयी,

'उस टीले वाले भूत को भी उसने ही बनाया होगा जो सबको मार देता है, उसे क्यों बनाया?’

'जब मैं बाबा की याद में अकेले में रोता हूँ और खुद को बहुत अकेला और असहाय महसूस करता हूँ तो यह भी उसी की वजह से होता है, ऐसा क्यों करती है वह?’

कुछ और गहरी मुस्कान के साथ उस व्यक्ति ने बुधुआ को कहा "बुधुआ इसमें वह बिलकुल भी दोषी नहीं होती जबकि सब कुछ वही करती है तब भी ! क्योंकि इंसान को आभासी सोचने-समझने की शक्ति मिली है जिससे वह अपने बुरे और भले के फैसले अपने विवेक का अनुसार ले सकता है और इसी लिए इंसान अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी माना जाता है।'

'बस यही कारण है कि सोच और विवेक भी वही उपजाती है फिर भी उसका दोष उसको लगता है जो सोचता है कि सब कुछ मैं कर रहा हूँ।'

'तुम्हारे बाबा इस संघर्ष में इसलिए प्राण गँवा बैठे क्योंकि उन्होंने अपने शत्रु की थाह और बलाबल का आकलन किये बिना ही उसके साथ लड़ाई करने का निर्णय ले लिया।'

'बिना विचारे किये गए कामों का परिणाम प्रायः विनाशकारी ही हुआ करता है, साथ ही नियति ही तो यही थी !'

'बुधुआ आंख्ने फाड़कर यह सब सुन रहा था लेकिन उसके बेचैन मन में बस एक ही चीज तांडव कर रही थी कि आखिर टीले वाले भूत पर विजय कैसे होगी?'

वह व्यक्ति मनोभाव समझ गया बुधुवा के और फिर मंद-मंद मुस्कराते हुए कह उठा "तो बुधुआ तुम्हारा परम उद्देश्य यही है कि तुम टीले वाले भूत को दंड देकर सदा-सदा के लिए अपने गांव को उससे मुक्त करा देना चाहते हो ना ? लेकिन यह बहुत आसान नहीं है क्योंकि उस भूत के साथ बहुत सी अन्य शक्तियां भी हैं जो उसकी मदद करती हैं जिस कारण उस पर पार पाना बहुत आसान नहीं होगा।"

"कोई तो रास्ता होगा" भावावेश में बुधुआ बीच में ही बोल पड़ा।

"है रास्ता - तो है, लेकिन तुम वह सब कर भी पाओगे या नहीं यह देखना होगा।" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया।

"मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ और कितना भी मुश्किल हो तब भी जब तक साँस है तब तक प्रयास करूँगा मैं।" बुधुआ ने उत्तर दिया।

"फिर ठीक है बुधुआ! मैं तुम्हे एक रास्ता बताऊंगा लेकिन याद रखना वह इतना आसान काम नहीं है, अगर थोड़ा सा भी डरे या कमजोर पड़े तो तुम्हे भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है जिसका उत्तरदायित्व तुम्हारा स्वयं का ही होगा।"

 बुधुआ तो जाने कब से इसी दिन और अवसर की प्रतीक्षा में भटक रहा था इसलिए उसने तुरंत सारी शर्तें एक ही झटके में स्वीकार कर लीं और झट से बोला "मुझे सब मंजूर है, आप मुझे बस रास्ता बताइये यदि मेरे साथ कोई घटना या दुर्घटना भी होती है तो सामने उपस्थित देवी को साक्षी मानकर मैं वचन देता हूँ कि उसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व मेरा स्वयं का ही होगा।"

 उस व्यक्ति ने स्वीकारोक्ति की मुद्रा में सर हिलाया और बुधुआ को अपने नजदीक बुलाकर उसके कान में कोई चीज कही - और उसे सुनते ही बुधुआ जड़ता की सी स्थिति में पहुंच गया अगर कुछ विशेष था तो वह कि कुछ पलों के बाद तेज स्पंदन पुरे शरीर में मानों विद्द्युत प्रवाह सा हो रहा हो उसके शरीर में फिर पुनः जड़ता और कुछ पलों बाद फिर से वही विद्द्युत प्रवाहवत स्पंदन पुनः जड़ता, यह क्रम कोई लगभग आध घंटे चलता रहा उसके उपरांत मानों बुधुआ किसी और ही लोक से उतरा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था।

पुराना बचपने का भाव और चंचलता मानो स्थिर हो गयी थी उसकी जगह ले ली थी एक तेजस्विता ने और गंभीरता ने लिया, बुधुआ धीरे से झुका और उस व्यक्ति के चरणों में शीश धर दिया उसने और देववाणी में कोई स्तुति सी करने लगा।

 शायद उस व्यक्ति का काम और प्रयोजन दोनों ही पुरे हो चुके थे इसलिए ही शायद हवा में कपूर की तरह वह विलुप्त हो गया लेकिन भाव में बुधुआ अभी अभी स्तोत्र पढ़ रहा था जिसके परिणाम में ऊपर निर्वात में बहुत सी आकृतियां बन और बिगड़ रही थीं, शायद यही नियति है और यही संसार !

स्तुति समाप्त हुयी, बुधुआ ने सर ऊपर उठाया तो उस व्यक्ति का कहीं अता-पता ना था, एक गंभीर सी मुस्कान बुधुआ अधरों में मचल उठी और उसने सामने स्थापित मूर्ति की तरफ चंद कदम बढ़ाये फिर वहीँ दंडवत की मुद्रा में लेट गया, फिर से कोई नयी स्तुति फिजां में गूंज उठी।

अब बारी थी मंद-मंद मुस्कराने की उसकी जो मूर्ति के अंदर विराजमान थी और मूर्ति ही क्यों जो इस सम्पूर्ण जगत के हर जर्रे में विद्यमान है और उसी की लीला थी कि जो बुधुआ कुछ घंटों पहले तक पहाड़ी गंवार लड़का था वह अब किसी विद्वान की तरह स्तुतियों पर स्तुतियां बरसा रहा था, जगतजननी खुद का ही बिछाया खेल देख-देखकर प्रफुल्लित हो रही थी।

नजारा बदल गया था, जगतजननी ने मोहरे को स्वयं चलने की नियति बख्श दी थी, उसकी इतनी कृपा के बाद भला फिर कोई और क्या चाहे ?

अब तो बुधुआ सारा दिन उसी के चरणों में पड़ा रहे, उस बियावान में वह मायाविनी भी एक सेवक पाकर प्रसन्न थी खुद ही पढ़ाती थी और फिर खुद ही उससे सुन सुनकर स्वयं प्रसन्न होती थी लेकिन अभी भी मूल प्रकृति तो बाकी ही थी।

बुधुआ बिक गया भरे हाट और बिककर भी ना जाने कितने स्वामियों से भी अधिक ऐश्वर्य हो गया उसका जिसे पाने को कौन नहीं तरसता भला चाहे वह योगी-जती-सन्यासी कोई भी क्यों ना हो ?

बुधुआ और जगतजननी दोनों मोह में ऐसे उलझे कि बुधुआ अपना असली उद्देश्य मानों भूल ही बैठा, दोनों (माता और पुत्र) बस यही दुनिया रह गयी शेष और यह सब चलते बरसों बीत गए।

एक दिन बुधुआ को समाचार मिला कि उसकी जन्मदात्री माँ अब शायद अपनी अंतिम सांसे ही गिन रही है - भागा-भागा आया और चंद पलों को भी मोहलत ना दी बेदर्द समय ने और एक आत्मा फिर निकल पड़ी अगली यात्रा पर।

जगत मानदंड पुरे करके बुधुआ फिर जगतजननी के प्रेम में खो जाता इससे पहले ही उसे राह दिखाने वाला व्यक्ति बुधुआ को फिर मिला !

उसे देखते ही बुधुआ की आँखों में अश्रुधारा बह निकली, श्रद्धा और भाव के आवेग में वह उस व्यक्ति के पास पहुंचा और उसके चरणों में सर रखकर फफक-फफक कर रो पड़ा और ऐसा रोया कि मानों सारे बंध स्वयं बह निकले और कोई भी पर्दा बाकी ना रहा - कहते हैं कि इष्ट और गुरु को समर्पित के लिए जीव के पास यदि कोई बहुमूल्य वस्तु है तो वह हैं सिर्फ और सिर्फ आंसू।


आंसू दे दिए जिसने गुरु और इष्ट को फिर कुछ देना बाकी नहीं रहता, यह जगत कभी धन की बात करता है तो कभी संपत्ति की कोई झूठे प्रेम के दिखावे से उन्हें अपना बनाना चाहता है तो कोई दुनिया भर के नियमों की बेड़ियों से।

लेकिन भला वह कभी रिक्त रहा है जिसने भाव दिया हो ?

भाव का ऐसा आवेग कि मानों जल-थल सब एक हो गए, बुधुआ का चेहरा लाल भभुका हो गया ऊपर नजर उठाकर देखता है तो क्या देखता है कि जिसके चरणों में पड़ा रो रहा है वह खुद देव है हाथों में मुद्गर,कटा हुआ सर, डमरू और चौथा हाथ अभय मुद्रा में सुन्दर वेश बाल रूप - केश लहरा रहे हैं साथ में स्वान खड़ा है और छवि ऐसी कि देखने के बाद कुछ और देखने की चाह शेष ना रहे।

बटुक लाल ने अभय मुद्रा वाला हाथ सर पर रख दिया बुधुआ के और धीर वाणी में बोले "बुधुआ अब कर्ज चुकाने का समय आ चुका है, भक्ति और प्रेम तो तुमने उत्तम कोटि की पा ही ली है बस अब अंतिम वस्तु तुम्हें देने जा रहा हूँ और उस वस्तु का प्रयोग तुम्हे अपने बुध्दि और विवेक से प्रयोग करना होगा जिससे रक्षा का भाव अधिक रहे एवं विनाश अत्यल्प हो।"

बुधुआ ने स्वीकारोक्ति में अपनी गर्दन हिला दी

बटुक लाल ने अपने हाथ का थोडा सा दबाव दिया बुधुआ के सर पर और फिर एक अद्भुत सी घटना हुयी, कुछ क्षणों तक बुधुआ का शरीर जड़ सा हुआ और प्रतीत हो रहा था कि जैसे बहुरंगी सूर्य रश्मियाँ किसी अज्ञात उद्गम से उत्पन्न होकर बुधुआ के शरीर में समाहित होती जा रही हैं

लेकिन प्रथम घटना की तरह इस बार कोई स्पंदन नहीं हो रहा उसके शरीर में बस वे सभी रश्मियाँ मानों उस जड़ शरीर के लिए निर्मित की हुयी हों निर्माता ने

थोड़े समय के उपरांत बुधुआ का शरीर जड़ता से उबरा तब बटुक लाल ने उसे आगामी संघर्ष के कुछ नियमों और बाध्यताओं के बारे में समझाया:

“बुधुआ जैसे ही तुम संघर्ष के लिए मैदान में उतरोगे, स्वयं का संतुलन बनाये रखना बिना वजह की बातों या भ्रमजाल से उत्तेजित होकर कोई कदम मत उठाना क्योंकि उत्तेजना में किया गया हर कार्य तुम्हे तुम्हारी पराजय के नजदीक लेकर जायेगा,

‘बुधुवा युद्ध में जब शत्रु मायावी हो तो तुम्हारी नजरें और महसूस करने की शक्ति बहुत एकाग्र रखने की जरुरत होगी, तुम्हारी एकाग्रता ख़त्म तो समझो तुम भी ख़त्म,

‘जब शत्रु पर प्रहार करना हो तो याद रखना सदैव शत्रु प्रयुक्त हथियार से विपरीत प्रकृति का हथियार प्रयोग करना और यह सदा जीत की तरफ तुम्हारा कदम होगा,

‘इस युद्ध में हम सब तुम्हे तुम्हारे चतुर्दिक नजर तो आयेंगे किन्तु हममे से कोई भी तुम्हारी प्रत्यक्ष सहायता नहीं करेगा”

बुधुआ थोडा सा सजग हुआ और अनायास ही उसके अधरों से एक प्रश्न स्फुटित हो उठा “आप सब मेरे हैं और आप ही के मार्गदर्शन की वजह से मैं इस धर्मयुद्ध में उतरूंगा किन्तु आप सब मात्र दर्शक होंगे, ऐसा क्यों?”

बटुक लाल ने मनभावनी मुस्कान के साथ उत्तर दिया “बुधुवा इसमें एक राज है – हमारे जितने तुम अपने हो उतना ही वह भी अपना है”

“अर्थात वह भी माँ का और आपका प्रिय है ? यदि ऐसा है तो फिर युद्ध किस बात का ? मैं स्वयं ही इस युद्ध का तिरस्कार करता हूँ!”

“नहीं बुधुआ यह युद्ध अब तिरस्कृत नहीं हो सकता क्योंकि यह युद्ध अब मात्र युद्ध नहीं रहा बल्कि यह तुम्हारी नियति बन चुका और सभी परा-अपरा शक्तियां इस युद्ध का बेसब्री से इंतजार कर रही हैं”

“क्या यह युद्ध इतना बड़ा और निर्णायक होगा कि इस युद्ध के लिए मुझसे भी ज्यादा व्यग्र अन्य सभी परा-अपरा शक्तियां हैं? आखिर क्या है इस सबका रहस्य ? कृपा करके इस दास को अवगत करावें” बुधुआ ने व्यग्रता पूर्वक पूछा

“बुधुआ इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें अवश्य मिलेगा किन्तु इस युद्ध के पश्चात्, यदि अभी यह प्रसंग चल निकला तो फिर यह युद्ध नहीं हो सकेगा, जो कि जगत जननी स्वयं भी नहीं चाहती” बटुक लाल ने प्रत्युत्तर में कहा

“ठीक है, जैसी आप सबकी इच्छा! मैं तो मोहरा मात्र हूँ सबकी कर्ता और कारण तो वही जगतजननी है” ऐसा कह बुधुआ ने जगतजननी की इच्छा पालन हेतु स्वयं को तत्पर किया

बटुक लाल ने बुधुआ को कुछ और आवश्यक चीजें धीमी आवाज में बतायीं एवं युद्ध हेतु आगामी शुक्रवार के दिन को निर्धारित करना तय हुआ जिसके लिए आवश्यक क्रिया-कलाप बुधुआ को बता दिए गए

बुधुआ ने जिस प्रकार से उसे कहा गया था ठीक उसी प्रकार से सभी कर्म सम्पादित किये एवं अंत में जब चुनौती भोग की बलि उसने टीले वाले भूत को प्रदान की तो उसे सहर्ष उसने स्वीकार किया एवं प्रत्युत्तर में एक सतरंगी माला हवा में लहराई एवं बुधुआ के गले की शोभा बनी जो उस भूत की तरफ से थी एवं जिसका गुण था कि आगामी शुक्रवार तक यदि नियति में बुधुआ की म्रत्यु भी लिखी हो तो वह भी नहीं हो सकती थी भले ही इसके लिए स्वयं धर्मराज स्वयं ही चेष्टा क्यों ना करें?

समय अपनी धुरी पर खिसकता रहा और आज शुक्रवार भी आ गया, ब्रह्ममुहूर्त से ही बुधुआ जगतजननी के चरणों में पड़ा रहा और निर्देशित विधि-विधान संपन्न करता रहा कुछ ही समय में द्वंद का समय हुआ चाहता है अस्तु बुधुआ अपने निर्धारित स्थल की तरफ चल पड़ा लेकिन उससे पहले उसने जगतजननी से अंतिम प्रार्थना की “हे माँ जीत-हार सब तेरी भ्रकुटी की हिलने मात्र से घटित होती हैं, तुम्हारी इच्छा और आदेश की पूर्ति हेतु मैं इस द्वंद का वरण करूँगा किन्तु तुम उसी का साथ देना माँ जो सतमार्गी हो” ऐसा कहकर माँ का बांकुरा निकल पड़ा धर्मयुद्ध के लिए

 निर्धारित स्थल पर पहुंचकर प्रथम बुधुआ ने सुरक्षा त्रिचक्रों का निर्माण किया इसके उपरांत अन्य निर्देशित एवं आवश्यक कार्य पुरे किये तत्पश्चात उसने उस टीले वाले भूत का युद्ध हेतु आवाहन किया – आवाहन पूर्ण होते ही ऐसा प्रतीत हुआ कि टीले से अग्नि शिखाएं निकलकर सम्पूर्ण वातावरण को दहका देंगी और हुआ भी वही आस-पास जो भी वृक्ष, झाड़-झंकाड़ थे वे पलमात्र में स्वाहा हो गए, अब अगर उस परिक्षेत्र में कुछ शेष बचा था तो वह था ज्वालामुखी की तरह दहकता हुआ टीला और उससे कुछ दुरी पर त्रिचक्रों के घेरे में बुधुआ

बुधुआ ने त्रिचक्रों की सुरक्षा में अपनी आँखें बंद कीं और मायाजगत में छलांग लगा दी ताकि वह उस वस्तु को खोज सके जो उसे सत्य का दर्शन करा सके, मायाजगत में प्रवेश करते ही उसे सन्देश मिला कि “टीले वाला भूत प्रथम तीन वार करेगा जो सिर्फ डराने के उद्देश्य से होंगे उनसे प्राण हानि नहीं हो सकती किन्तु यदि किसी ने डरकर या आवेश में आकर कोई प्रतिकार किया तो वह म्रत्यु का ग्रास होगा”
अगला संदेश “टीले वाला भूत सभी वार शत्रु के वाम भाग में स्थित होकर करेगा यदि शत्रु वार के उपरांत अपनी दिशा बदल दे तो कोई भी क्षति नहीं होगी”

तीसरा संदेश “यदि एक प्रहर तक कोई इससे स्वयं को बचा ले तो फिर उसी के हाथों इस भूत का अंत होगा”

बुधुआ को लगभग सभी आवश्यक संदेश प्राप्त हो चुके थे अस्तु उसने आँखें खोलीं और त्रिचक्रों पर दृष्टि जमाई, अंतिम चक्र दहक रहा था अर्थात भूत अब अपना तीसरा प्रहार करने की तैयारी में था जबकि बुधुआ ने दोनों प्रहारों को बिना किसी आवेश और हानि के तिरस्कृत कर दिया था

देखते ही देखते टीले का भाग किसी पहाड़ की तरह ऊपर उठने लगा, गर्द और गुबार पुरे आसमान को अपनी गिरफ्त में ले बैठा था, चारों तरफ अंधकार का साम्राज्य हो गया और फिर अचानक मिट्टी और धुल का ढेर  ऊपर आसमान से बुधुआ की तरफ लपका, ऐसा प्रतीत होता था कि मानों सैकड़ों गाज एक साथ एकत्र होकर धरती के विनाश की कथा लिखने निकल पड़ी हों, वह धुल मिट्टी बुधुआ का स्पर्श करती कि इससे पहले ही किसी अदृश्य, अभेद्य दीवार से टकराकर सब रेत के महल की तरह भरभराकर गिर गया
टीले वाले भूत का तीसरा प्रहार भी निष्फल रहा एवं बुधुआ अपने घेरे में निश्चल!

धुएं का गुबार उठा फिर जैसे एक-एक करके कड़ियाँ जुडती हैं वैसे ही वह धुवां जुड़ने लगा और उससे जो आकृति निर्मित हुयी वह अद्वितीय थी एक गोरा-चिट्टा योद्धा खड़ा था सामने जिसे देखकर स्वतः ही श्रद्धा एवं प्रेम से पूरित हो जाये व्यक्ति का मन
बुधुआ ने उसे देखा और मानसिक प्रणाम प्रेषित किया जिसे उस योद्धा ने उसी सम्मान से ग्रहण कर प्रतिवादन किया

उस योद्धा ने द्वंद युद्ध की मांग की बुधुआ से जिसके प्रत्युत्तर में बुधुआ ने भी मानसिक पुरुष की उत्पत्ति की एवं उसे योद्धा के समक्ष प्रस्तुत किया

द्वंद युद्ध आरंभ हुआ दोनों में से कोई भी हारने को तैयार ना था या फिर मानों प्रकृति ठहर गयी थी और वह स्वयं निर्णय होने देने के पक्ष में नहीं थी क्योंकि जैसे ही योद्धा प्रहार करता मानसिक पुरुष अपना दायाँ भाग उसके समक्ष कर देता एवं जैसे ही मानसिक पुरुष प्रहार करता योद्धा अपना वामांग उसके समक्ष कर देता

एक प्रहर बीतने में थोडा ही समय शेष होगा तभी योद्धा ने भयंकर मायाजाल की रचना कर दी मानसिक पुरुष विखंडित होता इससे पहले ही योद्धा के कई बहुरूप हुए एवं मानसिक पुरुष चारों तरफ से घिर गया,

‘एक घातक मुष्टि प्रहार मानसिक पुरुष के ब्रह्मांड वाले भाग पर पड़ा तो मानों सारा नभक्षेत्र विक्षोभित हो उठा एवं त्रिचक्रों के अन्दर बैठे बुधुआ के नासा छिद्रों से रक्त प्रवाह आरंभ हो गया, मानसिक पुरुष क्षीण पड़ने लगा तब तक एक और घातक पद प्रहार योद्धा ने मानसिक पुरुष के ह्रदय क्षेत्र पर किया उस प्रहार का वेग इतना तीव्र था कि मानसिक पुरुष सम्पूर्ण वेग से त्रिचक्रों को भेदता हुआ बुधुआ से आ टकराया एवं बुधुआ सारे त्रिचक्रों को वेधता हुआ बहुत दूर जा गिरा इस घटना चक्र में अंतिम शब्द जो बुधुआ के ओठों से निकले वह थे “हे माँ, छल हुआ”

योद्धा आगे बढा, एवं अन्य पद प्रहार बुधुआ के कटिं प्रदेश में किया जिस प्रहार की तीव्रता से बुधुआ का पूरा शरीर किसी धनुष की तरह दोहरा हुआ तदुपरांत दूर एक अन्यत्र टीले से जा टकराया, योद्धा अब भी नहीं रुका – आज वर्चस्व की लड़ाई थी!

नजदीक पहुंचकर योद्धा ने चित एवं मृत प्राय बुधुआ के ह्रदय क्षेत्र में पुनः पद प्रहार करने की योजना बनायीं एवं उसका पद बुधुआ के मूल शरीर के ह्रदय क्षेत्र को स्पर्श करता कि इससे पहले ही योद्धा स्प्रिंग लगे गुड्डे की तरह कई मीटर ऊपर उछला और वापस सर के बाल जमीन से टकराया

कोई और होता तो इस तीव्र और गति की घटना से उसका सर किसी तरबूज की तरह खिल उठा होता लेकिन योद्धा था कुशल खिलाडी जितनी तेजी से वह जमीन से टकराया उसी तेजी के साथ पुनः जमीन पर खड़ा हुआ लेकिन जैसे ही उसकी नजर सामने गयी और उसने देखा तो उसके होठों से एक ही शब्द निकला “हे माँ, ये कैसा छल?”

अगली कोई घटना घटती या शब्द निकलता उससे पहले ही रौद्र रूपा माँ कालिका का खड़ग आगे लपका, लेकिन यह क्या ? खड़ग प्रहार व्यर्थ गया !

खड़ग प्रहार व्यर्थ गया यह देख जगत जननी त्रिशूल का संधान करती इससे पूर्व ही योद्धा दंडवत हुआ एवं विनती की “हे जगत की पालक एवं संहारक, भला मुझसे बड़ा भाग्यशाली और कौन होगा इस त्रैलोक्य में ? जिसके हेतु स्वयं तुम्हे आना पड़ा! किन्तु ऐसी कौन सी भूल हुयी मुझसे कि मेरे जैसे तुच्छ को मारने के लिए तुम्हे स्वयं ही आना पड़ा, जबकि तुमने तो कहा था कि जब तक मैं मर्यादाओं की इति नहीं करूँगा तब तक मुझे कोई भी मार ना सकेगा ?’

माँ ने उत्तर दिया “तुमने मर्यादाओं की इति की है चन्द्र! तुमने स्वयं मुझ पर पद प्रहार किया है”

“यह जो शरीर (बुधुआ के शरीर की तरफ इशारा करके कहा) जमीन पर धूल-धूसरित पड़ा है इसके ह्रदय मंदिर में मैं सर्वदा विराजती हूँ, तुमने इस मंदिर को पददलित करने का अपराध किया है,

‘तुम्हारा समय पूरा हुआ चन्द्र”

यह सुन योद्धा उठ खड़ा हुआ और पूर्ण सम्मान के साथ जगतजननी के समक्ष सीना तानकर बोला “मार दे माँ और ले चल मुझे अपने साथ, अब कोई और ख्वाहिश नहीं रही”

त्रिशूल का लपलपाता हुआ फल योद्धा के सीने के आर पार हुआ!

युद्ध का अंत हुआ और गाँव से टीले वाले भूत के आतंक का अंत, बुधुआ और माँ आज भी वहीँ उसी मंदिर में विराजते हैं और कभी कभी आने जाने वालों को किसी अदृश्य आवाज में स्तुतियाँ सुनाई देती हैं।
माता महाकाली शरणम् 

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