Wednesday 1 February 2017

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा ( An Introduction of Swami Ramkrishna Paramhans and his life events epic)

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 9

स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा


गदाधर का १२वें वर्ष में प्रवेश हुआ और उसी समय बड़े भाई रामकुमार की पत्नी का प्रसूति काल नजदीक आया और वह एक सुन्दर पुत्र को जन्म देकर इस क्षणभंगुर दुनिया से चली गयीं.

रामकुमार की पत्नी के स्वर्गवास के साथ ही पारिवारिक उथल-पुथल फिर आरंभ हुयी और पुनः आर्थिक दशा दयनीय होने लगी और अब तो कर्ज भी दिनोंदिन बढ़ने लगा आर्थिक स्थिति सुधारने के उद्देश्य से रामकुमार जी ने इष्ट मित्रों से विचार-विमर्श करके अन्यत्र जाकर कोई कार्य करने का निश्चय किया और फिर कुछ समय पश्चात् ही वे कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता चले गए जहाँ झामापुकुर मोहल्ले में एक पाठशाला खोली .

मुहल्ले के लोगों और स्त्रियों की आँखों का तारा हो गया था गदाधर और कुछ स्वतंत्र भी जबसे रामकुमार कलकत्ता जाकर बस गए थे, मुहल्ले में ही वैश्यों की बस्ती में दुर्गादास पाइन नाम के एक बहुत धनाढ्य सज्जन रहते थे जिनका गदाधर पर बहुत स्नेह था किन्तु उनके यहाँ पर्दा प्रथा बहुत गहरी थी और इस प्रथा का पालन वे बहुत ईमानदारी से करते थे यहाँ तक कि गदाधर को भी स्त्रियों के बीच जाने की अनुमति नहीं थी और इस सम्बन्ध में वे अक्सर कहा करते थे “ मेरे घर की स्त्रियाँ कभी किसी की नजर में नहीं पड़ सकती हैं”

और चूँकि सीतानाथ पाइन जैसे अन्य लोगों के घर में इतनी बाध्यकारी पर्दा प्रथा नहीं थी इसलिए वे इन्हें अपने से निम्न कोटि का समझते थे .

एक दिन प्रसंगवश किसी सज्जन से दुर्गादास इसी सम्बन्ध में चर्चा करते हुए बड़े गौरवपूर्ण स्वर में अपने घर की पर्दा प्रथा की चर्चा कर रहे थे उसी समय वहां गदाधर पहुँच गया और सब सुनकर बोला “ क्या पर्दा स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा कर सकता है “?

“अच्छी शिक्षा और देवभक्ति ही किसी व्यक्ति के अंतर में सद्गुण और पवित्रता उत्पन्न कर सकता है, यदि मैं चाहूँ तो आपके घर के परदे के अन्दर से भी आपकी घर की स्त्रियों को देख लूँ और उनकी सारी बातें जान लूँ”.

दुर्गादास ने बड़े गर्व से कहा “ अच्छा तू कैसे देखता है जरा मैं भी तो जानूं “?

“समय आयेगा तब बताऊंगा” ऐसा कहकर मुस्कराते हुए गदाधर अपने रास्ते चला गया.

बाद में एक दिन संध्या समय स्त्री वेश धारे और बगल में टोकरी दबाये दुर्गादास के दरवाजे जा खड़ा हुआ और दुर्गादास से बोला “मैं पास के गांव से दूसरी औरतों के साथ सूत बेचने बाजार आई थी, वे लोग मुझे छोड़कर चली गयीं और मैं अकेली रह गयी इसलिए रात बिताने की जगह देख रही हूँ, अगर रात भर सर छुपाने की जगह मिल जाये तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी”

दुर्गादास ने उससे कुछ बातें और गाँव का नाम आदि पूछकर अनुमति दे दी और बोला कि “अन्दर जाओ और औरतों से पूछकर वे जहाँ कहें वहां रह जाना”

बड़ी कृतज्ञता से गदाधर ने हाथ जोड़े और अन्दर जनाने खाने की तरफ चल दिया और ठीक उसी प्रकार सारा किस्सा बताकर उनसे तरह-तरह की बातें कीं, उसके बातचीत करने के तरीके और संभाषण ने लगभग सबका मन मोह लिया इसके पश्चात् उस घर की महिलाओं ने एक कोठरी में उसके सोने और जलपान की व्यवस्था कर दी.

चुपके से गदाधर ने मौका निकालकर सब देख लिया,

इधर चंद्रा देवी बहुत परेशान होने लगीं जब बहुत देर रात गए भी गदाधर घर नहीं पहुंचा ।

तो बहुत बेचैन हो गयीं और रामेश्वर को उसे ढूंढ लाने को कहा, रामेश्वर ने उसे हर उस संभावित जगह ढूंढा जहाँ भी उसका आना जाना था ।

सीतानाथ जी के घर भी जब गदाधर ना मिला तो बस ऐसे ही रामेश्वर ने दुर्गादास जी के घर के पास से गुजरते हुए गदाधर-गदाधर की आवाज लगायी, उधर बड़े भाई की आवाज सुनकर और यह भांपकर कि रात बहुत अधिक हो गयी है गदाधर भीतर से ही "आता हूँ भैया" कहता हुआ बाहर भागा ।

दुर्गादास जी को समझते देर नहीं लगी कि गदाधर ने उन्हें मुर्ख बना दिया, यह सोच उन्हें प्रथम तो बड़ा क्रोध आया परंतु फिर उसकी मधुर बातें और स्त्रियों की तरह की भाव-भंगिमाएं आदि के बारे में याद हुआ तो अनायास उनकी हंसी निकल पड़ी ।

शीघ्र ही यह बात सारे गांव में जंगल की आग की तरह फैल गयी और सब कहने लगे कि गदाधर ने दुर्गादास जी के घमण्ड को चूर कर दिया, किन्तु दुर्गादास ने उसके बाद गदाधर को कभी भी उनके घर आने जाने की छूट दे दी ।

वैश्य मुहल्ले की सभी स्त्रियों को गदाधर से बड़ा स्नेह था और जब भी कभी ईश् भजन आदि के समय उसे भाव समाधि लग जाती थी तब सभी स्त्रियां उसकी पूजा श्री गौरांग या श्रीकृष्ण के भाव से करती थीं ।

उन लोगों ने उसके अभिनय के लिए एक सोने की मुरली एवं स्त्री-पुरुषों के उपयोग संबंधी विविध सामग्रियों का संग्रह भी कर रखा था ।

श्रीरामकृष्णलीलामृत नामक पुस्तक में एक प्रसंग वर्णित है कि 1893 में स्वामी सारदानंद जी आदि कामारपुकुर गए थे वहां उन्हें सीतानाथ पाइन जी की पुत्री रुक्मिणी देवी के दर्शन एवं उनसे बात करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ , रुक्मिणी देवी जो उस समय 60 वर्ष के आस पास हो चुकी थीं उन्होंने कुछ इस प्रकार गदाधर के बाल्यकाल की घटना का चित्रण किया ।

"हमारा मकान यहाँ से उत्तर की ओर बिलकुल समीप ही है जो अब टुटा-फूटा सा ढांचा दिख रहा है किंतु जब उस समय मेरी आयु सत्रह या अट्ठारह वर्ष की थी उस समय हमारा मकान किसी धनवान की हवेली के समान ही हुआ करता था, और हमारे घर सब मिलाकर कुटुंब की सत्रह या अठारह बहनें हो जाती थीं ।

और हम सब लगभग हमउम्र ही हुआ करते थे, बचपन से ही गदाधर हम सबके साथ ही खेला करता था और सब उससे बड़ा प्रेम मानते थे ।

क्रमशः ....... 

माता महाकाली शरणम् 


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