स्वामी रामकृष्ण परमहंस परिचय एवं जीवन वृत्त महागाथा - 7
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हालाँकि गदाधर की उम्र अभी उस स्तर की नहीं थी जहाँ बहुत भावावेग और म्रत्यु और जीवन के लिए सोचने का अधिक माद्दा होता लेकिन फिर भी पिता की म्रत्यु ने उसे इतना परिपक्व और गंभीर कर दिया कि वह अब अपने दुःख को प्रकट करने की बजाय अधिकाधिक यह कोशिश करता कि माँ को दुःख का आभास ना होने दे .
पिता की म्रत्यु ने गदाधर को एकाकी और आत्मकेंद्रित कर दिया था इस छोटी अवस्था में में भी पितृ वियोग ने उसे हिलाकर रख दिया था लेकिन उस बालक ने अपनी भावनाओं को बाहर नहीं आने दिया लेकिन इस वियोग ने उसे निकट के श्मशान और एकाकी जगहों का मुसाफिर बना डाला था .
कहते हैं कि समान रूप से दुखी व्यक्ति आपस में एक दुसरे की अधिक परवाह करने लगते हैं शायद इसी वजह गदाधर के मन में माँ के लिए अधिकाधिक प्रेम उमड़ने लगा था और उसकी यह कोशिश रहती थी कि उससे अब कोई ऐसा काम ना हो जिससे माँ को कोई ठेस लगे और अब पुनः गदाधर पाठशाला जाने लगा था लेकिन पाठशाला में मन कहाँ लगता वह तो भजन-पुराण और देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण में ही रमा रहता था .
गाँव में लाहा बाबु की धर्मशाला थी थी जहाँ वे सभी संत और भक्त रुका करते थे जो जगन्नाथ पुरी की तरफ जाया करते थे और गाँव में भिक्षाटन करके भोजन आदि का बंदोबस्त करते थे, गाँव में पुराण आदि की कथाओं में गदाधर सुना करता था कि “संसार अनित्य है” और यह भी उसने सुना था कि इसी बात के ज्ञान की वजह से साधू-संत और वैरागी लोग नित्य संसार से विरक्त रहकर ईश्वर की सेवा और गुणगान में अपना समय व्यतीत करते हैं और ऐसे साधुओं की संगत से जीव का कल्याण होता है .
इसी ज्ञान के वशीभूत हो वह प्रायः धर्मशाला में आया जाया करता था और देखता था कि वे किस प्रकार धुनी में अग्नि प्रज्ज्वलित करके भगवत चिंतन में निमग्न हो जाते थे, साथ ही भिक्षाटन में जो भी सामग्री प्राप्त होती थी उसे अपने इष्ट को समर्पित करने के उपरांत प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं ना धन की चिंता ना किसी की परवाह यदि कभी अस्वस्थ भी होते हैं तो उसे भी इष्ट की इच्छा मान अपने इष्ट को समर्पित कर देते हैं यह सब बातें गदाधर के बाल मन पर गहरी उतरती जा रही थीं और अपनी इन्ही भावनाओं के वशीभूत हो बालक गदाधर उन साधू-वैरागियों की सेवा में तत्पर रहने लगा उनके लिए लकड़ी-पानी की व्यवस्था करना और उनके स्थान की साफ-सफाई आदि भी करने लगा उन साधू-वैरागियों को भी इस मनोहारी बालक से स्नेह महसूस होने लगता था और अपने स्नेह वश वे बालक को अनेक प्रकार के दोहे, भजन, उपदेश और कथाएं सुनाते थे साथ ही अपने प्रसाद में से उसे प्रसाद खाने को भी देते थे .
गदाधर जब आठवें वर्ष में प्रवेश हुआ तब उस धर्मशाला में कुछ साधू बहुत दिन तक ठहरे, गदाधर उनका बहुत प्रेमपात्र बन गया था पहले तो आरंभ में किसी को इस बात का ज्ञान ना था किन्तु जब वह निरंतर दिन में कई-कई बार धर्मशाला जाने लगा तब यह बात सबको पता चली, प्रायः वह धर्मशाला से ही प्रसाद पाकर आता था और घर में जब माँ उसे खाने को कहती तो वह बोलता कि “ मुझे भूख नहीं है”.
पहले तो इस बात को संतो की कृपा समझकर चंद्रा देवी ने कोई खास ध्यान नहीं दिया किन्तु जब कई बार वह सन्यासियों कि तरह विभूति रमाये तो किसी दिन तिलक लगाये और कभी सन्यासियों की तरह लंगोटी पहने और अंचला ओढ़कर आता और माँ से कहता कि “देखो मुझे साधुओं ने कैसे सजा दिया है” तो इन बातों से चंद्रा देवी का मन घबरा गया और उन्हें डर सताने लगा कि किसी दिन ये साधू-सन्यासी उनके बेटे को बरगलाकर ले ना जाएँ और इसी क्रम में एक दिन जैसे ही गदाधर घर आया वे उसे गले लगाकर रोनें लगीं और कहने लगीं “बेटा संभलकर रहना नहीं तो किसी दिन वो साधू-सन्यासी तुझे बरगलाकर अपने साथ ले जायेंगे”.
गदाधर ने अपनी माँ को समझाया लेकिन चंद्रा देवी के मन का डर किसी भांति कम होने का नाम नहीं ले रहा था ऐसा देखकर गदाधर ने माँ से कह दिया कि अब वह उन सन्यासियों के पास नहीं जायेगा और यही बात गदाधर ने सन्यासियों से भी कह दी कि उनकी माँ नहीं चाहतीं कि वह सन्यासियों से कोई मेल-जोल रखें.
यह सब जानकर सन्यासी गदाधर के घर आये और चंद्रा देवी को आश्वासन दिया कि “ किसी बालक को बहला-फुसलाकर ले जाने का कोई विचार कभी उनके मन में नहीं आया और वैसे भी किसी अल्पवयस्क बालक को उनके अविभावकों की अनुमति के बिना यदि ले जाया जाये तो यह घोर अपराध की श्रेणी में आता है, अतः इस विषय पर उन्हें निश्चिंत रहना चाहिए . यह सुनकर चंद्रा देवी का संदेह समाप्त हो गया और उन्होंने गदाधर को उन साधु-सन्यासियों के पास आने-जाने की अनुमति दे दी .
विशालाक्षी देवी:
कामारपुकुर से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दुरी पर आनुड गाँव पड़ता है जहाँ विशालाक्षी देवी का मंदिर स्थित है, जिसके बारे में मान्यता है कि वह मंदिर जाग्रत अवस्था में है और वहां पर सभी की इच्छाएं पूर्ण होती हैं वहीँ जाने की तैयारी में सभी महिलाएं व्यस्त थीं.
उनको जाते देखकर गदाधर बोला कि मैं भी चलूँगा, प्रथम तो महिलाओं ने ले जाने से मना कर दिया और कह दिया कि इतनी छोटी उमर में इतनी दूर तक पैदल कैसे चलेगा, पर गदाधर ना माना और अंततोगत्वा महिलाओं ने उसे साथ जाने की अनुमति दे दी, इस बात से गदाधर को अपार हर्ष हुआ और वह आनंदीभुत होकर सबके साथ देवी-देवताओं के भजन गाते हुए चलने लगा.
थोड़ी दूर इसी तरह चलने के बाद गदाधर को भावावेश हो गया, अचानक से आवाज रुक गयी, आँखों से आसुओं की धारा बहने लगी, और वह चेतना शून्य होकर पृथ्वी पर गिर गया, इस प्रकार की घटना से सभी महिलाएं बहुत ही अधिक घबरा गयीं और कोई शरीर पर हवा करने लगी तो कोई पास के जलाशय से जल लाकर चेहरे पर डालने लगीं तो कोई देवी से अनेक प्रकार कि मन्नतें मांगने लगीं किन्तु गदाधर के होश थे कि आने को तैयार ही ना थे.
तभी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल किसी महिला ने सुझाया कि संभवतः गदाधर पर देवी विशालाक्षी की सवारी आई है बस फिर क्या था सभी महिलाओं ने भक्ति पूर्वक प्रार्थना और भक्ति गीतों कि झड़ी लगा दी इसके तुरंत बाद आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि गदाधर पूर्णतया स्वस्थ होकर उठ बैठा और उसके शरीर में कमजोरी या अस्वस्थता का कोई लक्षण तक ना था यह देख सभी औरतों को पूरा विश्वास हो गया कि गदाधर पर देवी का ही आवेश हुआ था, तत्पश्चात सभी महिलाएं गदाधर को लेकर मंदिर गयीं और पूजा अर्चना के बाद जब वापस आयीं तो सम्पूर्ण वृत्तांत चंद्रा देवी को यथावत कह सुनाया और यह सब सुनकर चंद्रा देवी को बहुत चिंता हुयी उन्होंने गदाधर की नजर उतारी और माता विशालाक्षी से गदाधर के मंगल की बहुविधि प्रार्थना और कामना की .
क्रमशः
माता महाकाली शरणम्
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