Monday, 31 March 2014

Tara Kali - तारा काली

Tara Kali - तारा काली



माता तारा दस दस महाविद्याओं में से दुसरे क्रम में आती हैं - हालाँकि मान्यताओं के आधार पर ये काली कुल में आती हैं और इनकी सिद्धि सिर्फ वाम मार्गीय साधना से ही हो सकती है -!


पहले हम ये देख लेते हैं कि कुल क्या हैं ?


दस महाविद्या परिवार में आद्या माता महाकाली के दस रूप पूजित होते हैं जो निम्न प्रकार हैं :-

  1. महाकाली 
  2. तारा 
  3. त्रिपुरसुंदरी 
  4. भुवनेश्वरी 
  5. त्रिपुर भैरवी 
  6. धूमावती 
  7. छिन्नमस्ता 
  8. बगला 
  9. मातंगी 
  10. कमला 
उपरोक्त दसों रूप अत्यंत ही मंगलकारी और कल्याणकारी हैं और हर एक रूप सम्पूर्ण तथा भक्तों को सब कुछ प्रदान करने में समर्थ है - इसलिए जैसा कि मैंने कई बार देखा है कि अक्सर साधक वर्ग संदेह में रहता है और यदि उसे कोई समस्या आती है तो वह कई लोगों से संपर्क करता है और यदि वह समस्या आसानी से समाप्त नहीं होती तो उसको ये है कि जिनकी साधना मैं कर रहा हूँ वे या तो भक्त वत्सल नहीं हैं या फिर मेरी सहायता करना नहीं चाहती हैं - इसी समय यदि कोई दूसरा साधक उसे अपनी इष्ट के बारे में बताता है तो उसे लगने लगता है कि ये वाली माता बहुत अच्छी हैं और फिर कई बार साधक अपनी साधना छोड़कर दूसरे रूप के पीछे भागने लग जाता है जो किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है -!

क्योंकि कहते हैं कि जो इष्ट और मंत्र को बदलता है उससे बड़ा अपराधी कोई और नहीं होता -!

दस महाविद्या साधना को दो मुख्य धाराओं में बांटा जाता है जिसमे से एक धारा का नाम काली कुल और दूसरी धारा का नाम श्री कुल कहा गया है -!

कथित तौर पर या पूर्व वर्णित आख्यानों और गुरुओं के आधार पर काली कुल में सम्मिलित महाविद्याओं की सिद्धि के लिए वाम मार्ग का अनुसरण आवश्यक है एवं श्री कुल कि महाविद्याओं को प्रसन्न या सिद्ध करने के लिए दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया जाना चाहिए -!

इसीलिए विज्ञजनों में कई बार इस सम्बन्ध में मतभेद भी होता है और यह मतभेद कई बार वाद और विवाद में भी परिवर्तित हो जाता है - क्योंकि सैद्धांतिक रूप से कोई भी साधक दोनों मार्गों का अनुसरण नहीं कर सकता जिसकी वजह से यदि कोई यह कहे कि उसने दसों महाविद्याओं को सिद्ध कर लिया है तो यह बात हास्यास्पद भी लगती है और साथ ही विवादित भी -!

लेकिन यहाँ पर मैं एक बात का और उल्लेख करना चाहूंगा की यह मेरे हिसाब से मुश्किल भी नहीं है और न ही विवादित तथा न ही हास्यास्पद - क्योंकि मार्गगत प्रतिबन्ध सिर्फ सिद्धियों पर लागु होता है साधना पर नहीं -!

साधना एक विस्तृत अर्थ रखने वाला शब्द है और इसे किसी एक अर्थ में बाँध कर नहीं रखा जा सकता है - साधना एक मार्ग है जिसके रास्ते में बहुत से पड़ाव आते हैं जिनमे से एक पड़ाव सिद्धि नाम का भी होता है - बहुत से मित्रों को देखा है - हर इंसान लघु मार्ग का चयन करके अधिकाधिक प्राप्त कर लेना चाहता है - लेकिन यह किसी कि समझ में नहीं आता कि लघु मार्ग कि आयु भी लघु ही होती है - मेरे पास जितने भी प्रश्न आते हैं सब के सब या तो सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं या फिर वशीकरण जैसी तुच्छ चीज के इच्छुक - मैं उनसे पूछता हूँ :- " यह साधना आप क्यों करना चाहते हो " ? जवाब मिलता है = " शुरू से ही मेरी इच्छा थी कि मैं भी साधना करूँ " मुझे अच्छा लगता है ये जानकर और सोचता हूँ कि चलो अभी भी कुछ लोग हैं जो इस दिशा में बढ़ना चाहते हैं - इसके बाद बातों के दौरान ही मैं पूछता हूँ :- " तो आप यह साधना कुछ समय के लिए / किसी खास उद्देश्य कि पूर्ति के लिए चाहते हैं या फिर आजीवन " ? जवाब आता है = " कुछ चाहते हैं उन्हें प्राप्त करना चाहता हूँ - अभी आजीवन के बारे में तो नहीं सोचा लेकिन हां इस बारे में बाद में सोचूंगा - अचानक उसका मन करवट बदलता है और सवाल आता है " अच्छा एक चीज बताओ आप - क्या आप माता के दर्शन करवा सकते हो मुझे " ?


मैं स्तब्ध रह जाता हूँ और जवाब देता हूँ :- " भाई अभी तक तो मैं खुद भी दर्शन नहीं पा सका तो फिर आप से कैसे ये वादा करूँ - हाँ यदि आपके समर्पण में दम हुआ तो यह कोई मुश्किल नहीं है -!


और बस इसके बाद फिर कई दिनों तक निश्तब्धता तत्पश्चात फिर कुछ दिनों के बाद सन्देश आता है " आपके पास यदि कोई शक्तिशाली वशीकरण प्रयोग तो देने कि कृपा करें लेकिन उसमे विधि विधान का ज्यादा झंझट न हो "


मैं उपेक्षित कर देता हूँ सन्देश को और फिर लग जाता हूँ तलाश में किसी अन्य साधक की :::

::: माता तारा :::


सभी विज्ञजनो एवं पूर्व में कर चुके सभी अनुभवी साधकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि यदि मेरे इस लिखे विधान में कोई त्रुटि नजर आये तो कृपया मुझे सुझाव प्रदान करें जिससे यह विधान जनहित में और भी अधिक परिष्कृत हो सके - इसके अतिरिक्त सभी नए एवं पुराने साधकों के समक्ष यह स्पष्ट कर दूँ कि यह विधान कोई सिद्धि विधान नहीं यह मातृ इष्ट निर्धारण और आजीवन पूजा पद्धति है - मैं वस्तुतः सिद्धियों के पूर्णतया खिलाफ हूँ और बस समर्पण और प्रेम के माध्यम से महाविद्याओं के चरणों में जगह बनाना चाहता हूँ एवं अन्य उन साधकों के लिए भी ये विधान समर्पित करना चाहता हूँ जो सामयिक सफलता के स्थान पर सर्वकालिक क्षमताओं को विकसित और पल्लवित करना चाहते हैं -!

सिद्धिगत सफलता के लिए माँ तारा कि साधना में वाम मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है - किन्तु यदि हम सिद्धि की जगह भक्ति पर दें तो हम उनकी कृपा किसी भी मार्ग से प्राप्त कर सकते हैं और मैं सात्विक / दक्षिण मार्ग का समर्थक हूँ अतएव मैं इसी मार्ग के विधान यहाँ प्रस्तुत करूँगा -!

किसी भी साधना के मार्ग में गुरु का बहुत बड़ा स्थान होता है एवं सर्वप्रथम गुरु का पूजन होता है इसलिए यदि पहले से ही आपके पास गुरु हैं और आपने गुरु मंत्र लिया हुआ है तो अपने गुरु का एक चित्र या गुरु प्रदत्त यन्त्र को अपने साथ रखें किन्तु यदि आपके पास कोई गुरु नहीं है तो निराश होने कि कोई जरुरत नहीं है आप मेरे गुरु को अपना गुरु स्वीकार करके अपनी साधना प्रारम्भ कर सकते हैं - मेरे गुरु को अपना गुरु स्वीकार करने के लिए आपको कुछ भी खास नहीं करना बस मुझे एक सन्देश भेजें मैं अपने गुरु कि तस्वीर आपको भेज दूंगा और तस्वीर को आप अपने पूजा स्थल में रखकर अपनी साधना के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं :::


साधना मार्ग में आगे बढ़ने से पहले एक बात :- माता तारा का मंत्र " त्रीं " है किन्तु "त्रीं" बीजमंत्र वशिष्ट  ऋषि द्वारा शापित कर दिया गया था अतएव "स्त्रीं " को बीज मंत्र के रूप में जपा जाता है इसमें " आधा स " लगाने से शाप विमोचन हो जाता है एवं माँ तारा कि साधना अक्षोभ ऋषि कि पूजा के बिना फलप्रद नहीं होती तथा यदि कोई साधक इस साधना को अक्षोभ ऋषि कि पूजा किये बिना करता है तो वह अपने सर्वस्व का नाश कर बैठता है -!

माता कि साधना में अधिकतम वस्तुएं नीले रंग कि प्रयोग की जानी चाहिए :-

पूजन सामग्री :-


एक आसन - नीला रंग - माँ कि स्थापना के लिए 

एक आसन - नीला रंग - आपकी साधना के लिए 

एक ताम्बे कि प्लेट - गुरु चित्र स्थापित करने के लिए 

एक ताम्बे का -लोटा - जल रखने के लिए 

एक ताम्बे कि छोटी चमची - जल एवं आचमन समर्पण के लिए 

एक माला - मंत्र जप के लिए ( काला हकीक / रुद्राक्ष / लाल मूंगा )

गुरु का चित्र , आम की लकड़ी से बना सिंहासन या फिर जो भी उपलब्ध हो सामर्थ्य के अनुसार , सिंहासन वस्त्र ( जो सिंहासन पर बिछाया जायेगा ) माता को समर्पित करने के लिए वस्त्र , माता के लिए श्रंगार सामग्री , साधक के खुद के लिए कपडे जो नीले रंग के होने चाहिए तथा यदि किसी पुरोहित की मदद लेते हैं पूजा में तो पुरोहित के लिए कपडे ( पुरोहित को समर्पित किये जाने वाले कपड़ो में रंग भेद नहीं होगा ) जनेउ , लाल अबीर

२. पान के पत्ते , सुपारी , लौंग , काले तिल , सिंदूर , लाल चंदन ,गाय का घी , गाय का दूध , गाय का गोबर

३. धूप , सुगन्धित अगरबत्ती , रुई , कपूर , पञ्चरत्न , कलश के लिए मिटटी का घड़ा , नारियल ( एक कच्चा और एक सूखा )

४. केले , फल पांच प्रकार के , पांच प्रकार की मिठाई

५. पुष्प , विल्व पत्र ( बेल पत्र ) , आम के पत्ते , केले के पत्ते , गंगाजल , अरघी , पांच बर्तन कांसे के / पीतल के ( २ कटोरी , २ थाली , १ गिलास )

६. आसन कम्बल के - नीला रंग -२ ( यदि पुरोहित साथ में हों तो २ अन्यथा १ ) चौमुखी दीपक , रुद्राक्ष या लाल चन्दन की माला , आम की लकड़ी , माचिस , दूर्वादल ( दूब ) , शहद , शक्कर , पुस्तक ( जिसके विधि विधान से साधना की जानी है ) , जौ , अभिषेक करने के लिए पात्र , विग्रह ( स्नान के बाद और नवेद्य समर्पित करने के पश्चात ) पोंछने के लिए नीला कपडा , शंख , पंचमेवा , मौली , सात रंगों में रंगे हुए चावल , एवं भेंट में प्रदान करने के लिए द्रव्य ( दक्षिणा धन ) !

नित्य पूजा प्रकाश में वर्णित कुछ पूजन से सम्बंधित तथ्य :-

अक्षत :- कम से कम सौ की मात्रा में हों

दूर्वा :- कम से कम सौ की मात्रा में हों

आसन :- आसन समर्पण के समय आसन में पुष्प भी चढाने चाहिए

पाद्य :- चार आचमनी जल उसमे श्यामा घास ( दूर्वा / दूब ) कमल पुष्प देने चाहिए

अर्घ्य :- चार आचमनी जल , गंध पुष्प , अक्षत ( चावल ) दूर्वा , काले तिल , कुशा , एवं सफ़ेद सरसों

आचमन में :- छः आचमनी जल तथा लौंग

मधुपर्क :- कांश्य / ताम्बे के पात्र में घी , शहद , दही

स्नान/ विग्रह :- पचास आचमनी जल

वस्त्र :- वस्त्रों का जोड़ा भेंट करना चाहिए

आभूषण :- स्वर्ण से बने हुए हों या फिर सामर्थ्यानुसार अथवा यदि उपलब्धता न हो तो सांकेतिक या मानसिक आभूषण समर्पण

गंध :- चन्दन , अगर और कर्पूर को एक साथ मिलकर बनाया गया हो

पुष्प :- कई रंग के हों और कम से कम पचास हों

धूप :- गुग्गल का धूप अति उत्तम होता है और कांश्य / ताम्र पात्र में समर्पित करना चाहिए

नैवेद्य :- कम से कम एक व्यक्ति के खाने लायक वस्तुएं होनी चाहिए

दीप :- कपास की रुई में कर्पूर मिलकर लगभग चार अंगुल लम्बी बत्ती होनी चाहिए

सारी सामग्री को अलग अलग बर्तन में होना चाहिए और बर्तन / पात्र स्वर्ण/ रजत / कांश्य / पीतल / ताम्र से निर्मित हों .... या फिर मिटटी के बने हुए हों

पूजन प्रारम्भ :::

१. गणेश पूजन ::

आवाहन :- गदा बीज पूरे धनु शूल चक्रे
सरोजोत्पले पाशधान्या ग्रदन्तानकरै संदधानं
स्वशुंडा ग्रराजन मणीकुंभ मंकाधि रूढं स्वपत्न्या
सरोजन्मा भुषणानाम्भ रेणोज्जचलम
द्धस्त्न्वया समालिंगिताम करीद्राननं चन्द्रचूडाम
त्रिनेत्र जगन्मोहनम रक्तकांतिम भजेत्तमम

गणपति पंचोपचार पूजन :::

ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री गणेशाय नमः

ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री गणपति नमः

ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री गणपति नमः

ॐ चन्दनं समर्पयामि भगवान् गणपति इदं आगच्छ इहतिष्ठ

ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि भगवते श्री गणपति नमः

ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री गणपति नमः

ॐ नवेद्यम समर्पयामि भगवान् गणपति इदं आगच्छ इहतिष्ठ

इस प्रकार पंचोपचार पूजन के पश्चात् हाथ जोड़कर भगवान् गणपति की अराधना निम्न स्तोत्र के द्वारा करें :::

विश्वेश माधवं ढुंढी दंडपाणि बन्दे काशी

गुह्या गंगा भवानी मणिक कीर्णकाम

वक्रतुंड महाकाय कोटि सूर्य सम प्रभ

निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा

सुमश्वश्यैव दन्तस्य कपिलो गज कर्ण कः

लम्बरोदस्य विकटो विघ्ननासो विनायकः

धूम्रकेतु गर्णाध्यक्ष तो भालचन्द्रो गजाननः

द्वादशैतानि नमामि च पठेच्छणु यादपि

विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा

संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते

शुक्लां वर धरं देवं शशि वर्ण चतुर्भुजम

प्रसन्न वदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोप शान्तये

अभीष्ट सिध्धार्थ सिद्ध्यर्थं पूजितो य सुरासुरै

सर्व विघ्नच्छेद तस्मै गणाधिपते नमः

इसके पश्चात् सद्गुरु का आवाहन और पूजन करें :-

गुरु आवाहन मंत्र :-

सहस्रदल पद्मस्थ मंत्रात्मा नमुज्ज्वलम

तस्योपरि नादविन्दो मर्घ्ये सिन्हास्नोज्ज्वले

चिंतयेन्निज गुरुम नित्यं रजता चल सन्निभम

वीरासन समासीनं मुद्रा भरण भूषितं

इसके पश्चात् गुरु देव का पंचोपचार विधि से पूजन करें :-

ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री गुरुभ्यै नमः

ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री गुरुभ्यै नमः

ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री गुरुभ्यै नमः

ॐ चन्दनं समर्पयामि भगवान् गुरुभ्यै इदं आगच्छ इहतिष्ठ

ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि भगवते श्री गुरुभ्यै नमः

ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री गुरुभ्यै नमः

ॐ नवेद्यम समर्पयामि भगवान् गुरुभ्यै इदं आगच्छ इहतिष्ठ


इसके पश्चात् गुरुस्तोत्र का पाठ करें :-

श्री गुरुस्तोत्रम् :-


गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशालाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥४॥

चिद्रूपेण परिव्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥५॥

सर्वश्रुतिशिरोरत्नसमुद्भासितमूर्तये ।
वेदान्ताम्बूजसूर्याय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥६॥

चैतन्यः शाश्वतः शान्तो व्योमातीतोनिरञ्जनः ।
बिन्दूनादकलातीतस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥७॥

ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥८॥

अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मेन्धनविदाहिने ।
आत्मञ्जानाग्निदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥९॥

शोषणं भवसिन्धोश्च प्रापणं सारसम्पदः ।
यस्य पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१०॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥११॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१२॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१३॥

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुंतं नमामि ॥१४॥

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इसके पश्चात् पृथ्वी शुद्धि करण कर लें
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प्रथ्वी शुद्धि मंत्र :-

ॐ अपरषन्तु ये भूता ये भूता भूवि संस्थिता

ये भूता विघ्नकर्ता रश्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया

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इसके पश्चात् अक्षोभ ऋषि का पंचोपचार विधि से पूजन करें :-

ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ चन्दनं समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री अक्षोभ ऋषये नमः

ॐ नवेद्यम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः
तत्पश्चात निम्न मंत्र को २१ /५१ /एक माला जाप कर लें

" ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: "
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इसके पश्चात् माता के पूजन की प्रक्रिया प्रारंभ होता होती जिसमे सर्व प्रथम संकल्प के लिए हाथ की अंजुली पर पान , सुपारी , द्रव्य ( धन ) गंगाजल , अक्षत , पुष्प , तिल लेकर निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करें :-

ॐ विष्णु विश्नुर्विष्णु श्री मद भगवतो महा पुरुषस्य विष्णो राज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्राह्मणोंह्विं द्वितीय प्रह्रार्द्धे , श्री श्वेत वाराह कल्पे वैवस्त- मन्वन्तरे अष्टान्विशा तितमे युगे कलियुगे कलिप्रथम चरणे भूर्लोक जम्बू द्विपे भारत वर्षे भरत खंडे आर्यावर्त देशे " अमुक नगरे " " अमुक ग्रामे " " अमुक स्थाने " वा बुद्धावतारे " अमुक नाम " संवत्सरे श्री सूर्य " अमुकायने " " अमुक तौ महा मांगल्य प्रद मासोत्तमे मासे " " अमुक मासे " " अमुक पक्षे " " अमुक तिथौ " " अमुक नक्षत्रो " " अमुक वासरे " " अमुक योगे " " अमुक करणे " " अमुक राशि स्थिते " देव गुरौ शेषेसु ग्रहेषु च यथा " अमुक शर्मा " महात्मनः मनोकामना पूर्ति , धन , जन , सुख सम्पदा प्रसन्नता परिवार सुख शांतिः , ग्राम सुख शांतिः हेतु , सफलता हेतु श्री तारा पूजन - कलश स्थापन - हवन - कर्म - आरती कर्म अहम् करिश्येत :::

प्रथम पूजन खंड

स्तुति :-

प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा
पराखड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वानीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युताजाड्यन्न्यस्य
कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं


आवाहन :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं आगच्छय आगच्छय ::

आसन :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं आसनं समर्पयामि ::

पाद्य :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं पाद्यं समर्पयामि ::

अर्घ्य :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं अर्घ्यं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं आचमनीयं निवेदयामि ::

मधुपर्क :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं मधुपर्कं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं पुनराचमनीयम् निवेदयामि ::

स्नान :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं स्नानं निवेदयामि ::

वस्त्र :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं प्रथम वस्त्रं समर्पयामि ::

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं द्वितीय वस्त्रं समर्पयामि ::

आभूषण :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं आभूषणं समर्पयामि ::

सिन्दूर :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं सिन्दूरं समर्पयामि ::

कुंकुम :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं कुंकुमं समर्पयामि ::

गन्ध / इत्र :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं सुगन्धित द्रव्यं समर्पयामि ::

पुष्प :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं पुष्पं समर्पयामि ::

धूप / अगरबत्ती :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं धूपं समर्पयामि ::

दीप :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं दीपं दर्शयामि ::

नैवेद्य :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं नैवेद्यं समर्पयामि ::


मध्यम पूजन खंड :-

नैवेद्य समर्पण के बाद पूजन का मध्यम क्रम आरम्भ होता है जिसमे शप्तशती पाठ एवं अन्य कर्म सम्पादित किये जाते हैं :-

अष्टोत्तरशत नाम :- 108 Name of Mata Tara Kali 

  1. तारणी 
  2. तरला 
  3. तन्वी 
  4. तारातरुण 
  5. बल्लरी
  6. तीररूपातरी 
  7. श्यामा 
  8. तनुक्षीन 
  9. पयोधरा 
  10. तुरीया 
  11. तरला 
  12. तीब्रगमना 
  13. नीलवाहिनी
  14. उग्रतारा
  15. जया 
  16. चंडी 
  17. श्रीमदेकजटाशिरा
  18. परा 
  19. परात्परा 
  20. अतीता 
  21. चित्परा 
  22. तत्परा 
  23. तदतीता 
  24. सर्वातीता
  25. महानीला 
  26. शिवपालिनी 
  27. शिवपोषिणी 
  28. शिवमाता 
  29. विषहरा 
  30. नीलतारा 
  31. श्यामला 
  32. उग्रा 
  33. भक्तपालिनी 
  34. भवतारिणी 
  35. द्वितीया 
  36. एकांका 
  37. जगत्पालिनी 
  38. भयहारिणी 
  39. भक्तवत्सला 
  40. सरस्वती 
  41. नील सरस्वती 
  42. वेदारंभा 
  43. वेदाधारा 
  44. विजया 
  45. मंगला 
  46. कपालिका 
  47. श्मशाना 
  48. श्मशानप्रिय 
  49. खड्गधारिणी
  50. खर्परा 
  51. हुंकारा
  52. जगत हंत्री 
  53. घोराटटहासा
  54. विशाला 
  55. नाग आभूषणा 
  56. गरलहर्ता
  57. सुधा 
  58. सुधादायिनी 
  59. शिवप्राणरक्षिता 
  60. अम्बिका 
  61. अम्बा 
  62. आनंदा 
  63. अक्षोभ पूजिता 
  64. काली 
  65. कृष्णा 
  66. कृष्णवर्णा
  67. देवपालिनी 
  68. सर्वदेव प्रपूजिता
  69. आद्या 
  70. अघोरा 
  71. वामा खेपा पूजिता 
  72. वामा खेपा माता 
  73. वामा खेपा रक्षिता 
  74. कालहर्त्री 
  75. कपर्दिनी 
  76. कुलपूजिता 
  77. कृत्या 
  78. कृशांगी 
  79. कुलपालिका 
  80. कंकाली 
  81. मुण्डमालधारिणी 
  82. शववाहिनी 
  83. श्मशानालयवासिनी 
  84. अचिन्त्यामिताकार 
  85. शक्तिस्वरूपा 
  86. गुणातीता 
  87. परम्ब्रह्मरूपिणी 
  88. सिद्धा 
  89. सिद्धिदात्री 
  90. अघोर प्रपूजिता
  91. नेत्रा 
  92. नेत्रोत्पन्ना 
  93. अघोरा काली 
  94. अनादिरूपा 
  95. अनन्ता 
  96. दिव्या 
  97. दिव्य ज्ञाना 
  98. महामाया 
  99. सुखदा 
  100. सुखमूला 
  101. दुष्टमुण्ड विदारिणी 
  102. दुष्ट हंता 
  103. दानव विदारिणी 
  104. भक्त रक्षिता 
  105. ज्ञानदा 
  106. मोक्षदा 
  107. सत्वैक मूर्ति 
  108. सिद्ध प्रपूजिता 


तारास्तोत्रम् - Tara Stotram


श्रीगणेशाय नमः 

मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ।
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले खङ्गं
चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥१॥

वाचामीश्वरि भक्तिकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धिश्वरि
गद्यप्राकृतपद्यजातरचनासर्वार्थसिद्धिप्रदे ।
नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारान्निधे
सौभाग्यामृतवर्धनेन कृपयासिञ्च त्वमस्मादृशम् ॥२॥

खर्वे गर्वसमूहपूरिततनो सर्पादिवेषोज्वले
व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाङ्किते ।
सद्यःकृत्तगलद्रजःपरिमिलन्मुण्डद्वयीमूर्द्धज-
ग्रन्थिश्रेणिनृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय ॥३॥

मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्द्धचन्द्राम्बिके
हुम्फट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः ।
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा
परा वेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ॥४॥

त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां
तस्याः श्रीपरमेश्वरत्रिनयनब्रह्मादिसाम्यात्मनः ।
संसाराम्बुधिमज्जने पटुतनुर्देवेन्द्रमुख्यासुरान्
मातस्ते पदसेवने हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ॥५॥

मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजोमुद्राङ्ककोटीरिणस्ते
देवा जयसङ्गरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः ।
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्द्धां वहन्तः परे
तत्तुल्यां नियतं यथा शशिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ॥६॥

त्वन्नामस्मरणात्पलायनपरान्द्रष्टुं च शक्ता न ते
भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षश्च नागाधिपाः ।
दैत्या दानवपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो
डाकिन्यः कुपितान्तकश्च मनुजान् मातः क्षणं भूतले ॥७॥

लक्ष्मीः सिद्धिगणश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां
स्तम्भश्चापि वराङ्गने गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम् ।
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्ध्यन्ति ते ते गुणाः
क्लान्तः कान्तमनोभवोऽत्र भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः ॥८॥

ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः ।
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः ॥९॥

लभते कवितां विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद्भवेत्
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ।
कीर्तिं कान्तिं च नैरुज्यं प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ॥१०॥

॥इति श्रीनीलतन्त्रे तारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
   


।। तारा प्रत्य़ञ्गिरा कवचम् ।। Tara Pratyangira Kawcham 
।।




।। ॐ प्रत्य़ञ्गिरायै नमः ।।


ईश्वर उवाच 

ॐ तारायाः स्तम्भिनी देवी मोहिनी क्षोभिनी तथा ।
हस्तिनी भ्रामिनी रौद्री संहारण्यापि तारिणी ।
शक्तयोहष्टौ क्रमादेता शत्रुपक्षे नियोजितः ।
धारिता साधकेन्द्रेण सर्वशत्रु निवारिणी ।।

ॐ स्तम्भिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय ।
ॐ क्षोभिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् क्षोभय क्षोभय ।
ॐ मोहिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् मोहय मोहय ।
ॐ जृम्भिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् जृम्भय जृम्भय ।।

ॐ भ्रामिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् भ्रामय भ्रामय ।
ॐ रौद्री स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् सन्तापय सन्तापय ।
ॐ संहारिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् संहारय संहारय ।
ॐ तारिणी स्त्रें स्त्रें सर्व्वपद्भ्यः सर्व्वभूतेभ्यः सर्व्वत्र
रक्ष रक्ष मां स्वाहा ।।

य इमां धारयेत् विध्यां त्रिसन्ध्यं वापि यः पठेत् ।
स दुःखं दूरतस्त्यक्त्वा ह्यन्याच्छत्रुन् न संशयः ।
रणे राजकुले दुर्गे महाभये विपत्तिषु ।
विध्या प्रत्य़ञ्गिरा ह्येषा सर्व्वतो रक्षयेन्नरं ।।

अनया विध्या रक्षां कृत्वा यस्तु पठेत् सुधी ।
मन्त्राक्षरमपि ध्यायन् चिन्तयेत् नीलसरस्वतीं ।
अचिरे नैव तस्यासन् करस्था सर्व्वसिद्ध्यः
ॐ ह्रीं उग्रतारायै नीलसरस्वत्यै नमः ।।

इमं स्तवं धीयानो नित्यं धारयेन्नरः ।
सर्व्वतः सुखमाप्नोति सर्व्वत्रजयमाप्नुयात् ।
नक्कापि भयमाप्नोति सर्व्वत्रसुखमाप्नुयात् ।।

।। इति रूद्रयामले श्रीमदुग्रताराया प्रत्य़ञ्गिरा कवचम् समाप्तम् ।।



प्रणामाज्जलि / पुष्पांजलि :-

:: ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी पुष्पांजलिं समर्पयामि ::

नीराजन :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं नीराजनं समर्पयामि ::

दक्षिणा :-

::ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं दक्षिणां समर्पयामि ::

अपराधा क्षमा याचना  :-

अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया । 
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
 
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । 
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥ 

मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥ 

अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् । 
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥ 

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदंबिके । 
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥ 

अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् च । 
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥ 

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे । 
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥ 

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥८॥

आरती :-

मंगल की सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, ले तारा तेरी भेंट करे।।

सुन जगदम्बा कर न विलम्बा, संतन के भण्डार भरे।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली, जय काली कल्याण करे ।।

बुद्वि -विधाता तू जग माता, मेरा कारज सिद्व करे।
चरण कमल का लिया आसरा, शरण तुम्हारी आन परे ।।

जब -जब भीड़ पड़े भक्तन पर, तब -तब आय सहाय करे ।
बार -बार ते सब जग मोहयो, तरूणी रूप अनूप धरे ।।

माता होकर पुत्र खिलावे, भार्या होकर भोग करे।
संतन सुखदाई सदा सहाई, संत खड़े जयकार करे ।।

ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिए, भेंट देन तेरे द्वार खड़े ।
अटल सिंहासन बैठी माता, सिर सोने का छत्र फिरे ।।

बार शनिश्चर कुम कुम बरणी, जब लांगुर पर हुक्म करे ।
खड़ग खप्पर त्रिशूल हाथ लिए, रक्तबीज को भस्म करे ।।

शुम्भ निशुम्भ पछाड़े माता, महिषासुर को पकड़ दले ।
आदित बार आदि का राजत, अपने जन का कष्ट हरे ।।

कोप करा जब दानव मारे, चण्ड मुण्ड सब चूर करे ।
सौम्य  स्वभाव धरयो मेरी माता, जन की अर्ज कबूर करे ।।

सिंह पीठ पर चढ़ी भवानी, अटल भवन में राज करे।
मंगल की सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े ।।

प्रदक्षिणा :-यानि कानि च पापानि,
जन्मान्तर कृतानि च,
तानि तानि प्रनश्यन्ति,
प्रदक्षिणायाम् पदे पदे ।





Chandika Dalam - चंडिका दलम

चण्डिका दलम एक बहुत ही प्रभावशाली स्तोत्र है - जिसका अनुष्ठान करके किसी भी तरह कि ऊपरी हवा - प्रेत दोष - इतर योनि दोष इत्यादि का निवारण होता है -!

यह स्तोत्र स्वयं सिद्ध है अतः इसे सिद्ध करने कि कोई आवश्यकता नहीं होती बस इसका विधिवत अनुष्ठान करें और सरे दोषों से मुक्ति स्वतः ही मिल जायेगी -!

इस स्तोत्र का अनुष्ठान ४० दिनों का होता है इन चालीस दिनों से पहले ही आपको इसका प्रभाव स्पष्ट नजर आने लगेगा - किन्तु कई बार गृह दोषों या नक्षत्र दोषों कि वजह से तत्काल प्रभाव परिलक्षित नहीं होता है इसलिए चिंता करने कि कोई बात नहीं होती बस मन लगाकर समर्पण से स्तोत्र का पाठ अंततः आपको सारी बाधाओं से मुक्ति दिलाता है -!







विधि :-


समय :- मध्य रात्रि १२:०० बजे 

आसन :- लाल रंग का 

दिशा :- उत्तर या पूर्व कि अपनी सुविधानुसार चुनें 

साधन :- माता चंडिका का एक चित्र किसी चौकी पर स्थापित करें जिस पर लाल रंग का आसन बिछा हुआ हो इसके बाद माँ को लाल रंग कि चुनरी समर्पित करें और अपनी समस्या को माँ के सामने दोहराएँ तथा निवारण के लिए उनसे प्रार्थना करें -!

पूजा विधान :- पंचोपचार 

अ. धुप ( धुप / अगरबत्तियां गुग्गल कि होनी चाहिए )

ब. दीप ( दीपक चौमुखी होगा एवं सरसों के तेल का होगा )

स. पुष्प ( पुष्प लाल रंग के होंगे - गुलाब हो तो अति उत्तम )

द. इत्र ( इत्र भी गुलाब का ही होगा )

य. नैवेद्य ( नैवेद्य में ऋतुफल / भोजन सामग्री होगी जो कम से कम एक व्यक्ति के खाने योग्य हो )


स्तोत्र का पाठ करें ( स्तोत्र का पाठ करते समय उच्चारण इतना तेज होना चाहिए कि आवाज आपके चारों तरफ या फिर जिस कमरे में आप पाठ कर रहे हों उस पुरे कमरे में गूंजे )


र. आरती :- ( आरती में माता चंडिका की कोई भी आरती गायें जैसे कि " ॐ जय अम्बे गौरी " या फिर " मंगल कि सेवा सुन मेरी देवा हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े "


ल. प्रदक्षिणा :- प्रदक्षिणा / परिक्रमा के लिए यदि पूजा स्थल में पर्याप्त जगह न हो तो अपने स्थान पर खड़े होकर चारों तरफ घूम जाएँ और कल्पना करें कि माँ कि परिक्रमा कर रहे हैं )





Saturday, 29 March 2014

नवरात्र घट/कलश स्थापना - Navratri Ghat / Kalash Sthapna - Ghat Pujan

नवरात्र घट/कलश स्थापना - Navratri Ghat / Kalash Sthapna 



घट या कलश स्थापन नवरात्रों के पूजन का बहुत महत्तवपूर्ण अंग है और इसके बिना नवरात्रों की साधना अधूरी मानी जाती है - हालाँकि पारम्परिक समाज में सभी को पता होता है कि घट स्थापना कैसे कि जाती है लेकिन जो लोग नए साधक हैं और पहली बार माता कि साधना करना चाहते हैं उनके लिए मैं घट पूजन का विधान बताने जा रहा हूँ कि किस प्रकार से आप लोग घट कि स्थापना एवं पूजन करेंगे :-

सर्वप्रथम अपने स्थानीय पंचांग या पंडितों के परामर्श के अनुसार मुहूर्त ज्ञात कर लें इसके पश्चात् जल्दी स्नान करके माँ भगवती का ध्यान तथा पूजन करके सर्वप्रथम कलश स्थापना की तैयारी निम्न सामग्री के साथ करें -!

कलश / घट स्थापना के लिए सामग्री कि सूची निम्नवत है :-

सामग्री :-

जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र
जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिटटी
पात्र में बोने के लिए जौ
घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश
कलश में भरने के लिए शुद्ध जल या गंगाजल
मोली/कलेवा/हाथ पर रक्षा बंधन हेतु
कुछ साबुत पान
इत्र
साबुत सुपारी
कलश में रखने के लिए कुछ सिक्के
अशोक या आम के 5 पत्ते
कलश ढकने के लिए ढक्कन
ढक्कन में रखने के लिए बिना टूटे चावल या गेंहू
पानी वाला नारियल
नारियल पर लपेटने के लिए लाल कपडा
फूल माला

घट स्थापना की विधि :-
प्रतिपदा / प्रथम तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प करें .

"मैं --अपना नाम -- सुपुत्र श्री / सुपुत्री / पत्नी -- अपने पिता / पति का नाम बोलें --- पक्ष का नाम बोलें (शुक्ल पक्ष ) -- वाशर का नाम बोलें (दिन ) अपने घर परिवार और घर के सुख एवं शांति तथा उन्नति एवं अखंड भक्ति हेतु नवरात्रि व्रत एवं नव दिनों कि पूजा का संकल्प लेता हूँ / लेती हूँ "


उपरोक्त तरीके से व्रत का संकल्प लेकर ब्राह्मण द्वारा या स्वयं ही मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है. सबसे पहले जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र लें - इस पात्र में मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब एक परत जौ की बिछाएं। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं - अब फिर एक परत जौ की बिछाएं - इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं - मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें - स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के ऊपर नारियल को लाल वस्त्र/चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। कलश के कंठ पर मोली बाँध दें। कलश में शुद्ध जल, गंगाजल कंठ तक भर दें - कलश का मुख ढक्कन से बंद कर दें - ढक्कन में चावल / गेंहू भर दें। नारियल पर लाल कपडा लपेट कर मोली लपेट दें। अब नारियल को कलश पर रखें। अब कलश को उठाकर जौ के पात्र में बीचो बीच रख दें।

घट में सबसे पहले वरुण देव का आवाहन करें और निम्न मंत्र बोलते हुए " ॐ नवरात्र पूजनार्थे वरुण देवाय आवाह्यामि " और इस मंत्र का उच्चारण करते हुए कलश के अंदर एक पान एक सुपारी और कुछ पैसे डाल दें -! इसके पश्चात् अब कलश में सभी देवी देवताओं का आवाहन करें। “हे सभी देवी देवता और माँ दुर्गा आप सभी नौ दिनों के लिए इस में पधारें।”

इसके पश्चात् दीपक जलाकर कलश का पूजन करें - इसके पश्चात् कलश को धूपबत्ती दिखाएं। कलश को माला अर्पित करें। कलश को फल मिठाई अर्पित करें। कलश को इत्र समर्पित करें।

कलश स्थापना के बाद माँ दुर्गा की चौकी की स्थापना की जाती है - चौकी कि स्थापना के बाद गौरी गणेश का पूजन होगा इसके लिए गाय के गोबर और पीली मिटटी कि आवश्यकता होती है - गोबर से एक लिंगाकार आकृति बनायें उसमे ऊपर के तरफ एक ऊँगली से नीचे दबाएँ जिससे एक स्थान सा बन जायेगा उस स्थान में सिंदूर भर दें -इसके बाद पीली मिटटी की पांच या सात डली रखें और उन पर भी सिंदूर लगाएं और इस प्रकार कल्पना करें कि आप माता गौरी सहित प्रथम पूजित गणेश जी कि पूजा कर रहे हैं - यह क्रिया करने के बाद निम्न प्रकार प्रार्थना करें :-


" ॐ नवरात्र्यै महापर्वे नव दिवसे पूजनार्थे गौरी सह गणेश आवाहयामि "


" नवरात्रों के इस पवन अवसर पर मैं माता गौरी सहित भगवान गणेश का आवाहन करता / करती हूँ कृपया मेरे पूजन स्थल में पधारकर समस्त विघ्नों का निवारण करें और मेरी पूजा को सफल बनायें "


इसके बाद माता नवदुर्गा कि स्थापना होगी - माता नवदुर्गा कि स्थापना कलश के दायें भाग में करें एवं गौरी गणेश कि स्थापना माता नवदुर्गा कि चौकी के सामने करें -!


तत्पश्चात यदि आप गुरु मंत्र धारी हैं एवं गुरु पूजा करते हैं तो माता कि चौकी के सामने ही गुरु चित्र / गुरु यंत्र जो भी उपलब्ध हो उसकी स्थापना करें - गुरु कि पंचोपचार विधि से पूजा करें इसके पश्चात् माता कि सोलह उपचारों से पूजा करें -!

नोट :- बहुत से भाई एवं बहनों को संस्कृत मन्त्रों के उच्चारण में महसूस होती है अतएव यदि वे संस्कृत मन्त्रों का उच्चारण न कर सकें तो वही प्रार्थना अपनी लोक भाषा में कर सकते हैं - बस इतना ध्यान रखें कि वह आवाहन और प्रार्थना आपके ह्रदय से निकली होनी चाहिए -!


जय माँ महाकाली

Thursday, 27 March 2014

Surya Dwadash Naam - सूर्य द्वादश नाम

Surya Dwadash Naam - सूर्य द्वादश नाम



अथ सूर्य द्वादश नाम

आदित्य: प्रथमं नाम द्वितीयं तु विभाकर: ।
तृ्तीयं भास्कर: प्रोक्तं चतुर्थं च प्रभाकर: ।।


पंचम च सहस्त्रांशु षष्ठं चैव त्रिलोचन: ।
सप्तमं हरिदश्वश्च अष्टमं च विभावसु: ।।


नवमं दिनकृ्त प्रोक्तं दशमं द्वादशात्मक: ।
एकादशं त्रयोमूर्तीद्वादशं सूर्य एव च ।।


द्वादशैतानि नामानि प्रात:काले पठेन्नर: ।
दु:स्वप्ननाशनं सद्य: सर्वसिद्धि: प्रजायते ।।


आयुरारोग्यमैश्वर्य पुत्र-पौत्र प्रवर्धनम ।
ऎहिकामुष्मिकादीनि लभन्ते नात्र संशय: ।।



इति सूर्य द्वादश नाम


Surya - Soorya Aditya Hraday Stotram - सूर्य - आदित्य ह्रदय स्तोत्र

आदित्यहृदय स्तोत्र

नोट :- भिन्न - भिन्न जगहों पर उपलब्ध स्तोत्र में कुछ श्लोकगत भिन्नता मिल सकती है किन्तु उस भिन्नता कि वजह से कोई प्रभाव नहीं पड़ता सबसे पड़ा प्रभाव आपकी एकाग्रता और समर्पण का होता है - इसलिए जब भी स्तोत्र जाप करें तो ध्यान रखें कि आपका पूरा ध्यान आपकी साधना पर हो -!



विनियोग

ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो

भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास

ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।

ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।

करन्यास

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि अंगन्यास

ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।

ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।

इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।



स्तोत्र प्रारम्भ 

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ।1।

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ।2।

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ।3।

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।4।

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ।5।

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।6।

सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।7।

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ।8।

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ।9।

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ।10।

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ।11।

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ।12।

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ।13।

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः।14।
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते।15।

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।16।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।17।

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ।18।

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ।19।

तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ।20।

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ।21।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ।22।

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ।23।

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ।24।

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ।25।

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ।26।

एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ।27।

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ।28।

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।29।

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ।30।



हिंदी अर्थ


उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।

सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।

भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो।

सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।

इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है 'आदित्यहृदय'। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।

इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। (इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है।

पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।

आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है।

(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।

आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।

आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।

रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।

ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।

(यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।

'राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।'

इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।

महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।' यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।

उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।

उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा "रघुनन्दन" !" अब जल्दी करो "।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पंचाधिकशततमः सर्गः

Wednesday, 26 March 2014

श्रीछिन्नमस्ताहृदयम् - Shri Chhinnamastahradyam - Chiinamasta Hraday Stotra

श्रीछिन्नमस्ताहृदयम्




श्रीगणेशाय नमः 

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श्रीपार्वत्युवाच 
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श्रुतं पूजादिकं सम्यग्भवद्वक्त्राब्जनिःसृतम् ।
हृदयं छिन्नमस्तायाः श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥१॥
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ॐ महादेव उवाच
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नाद्यावधि मया प्रोक्तं कस्यापि प्राणवल्लभे ।
यत्वया परिपृष्टोऽहं वक्ष्ये प्रीत्यै तव प्रिये ॥२॥

ॐ अस्य श्रीछिन्नमस्ताहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य भैरव ऋषिः ,
सम्राट् छन्दः , छिन्नमस्ता देवता , हूं बीजम् ,
ॐ शक्तिः , ह्रीं कीलकं , शत्रुक्षयकरणार्थे पाठे विनियोगः ॥
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अथ ऋष्यादिन्यास

ॐ भैरवऋषये नमः शिरसि ।
ॐ सम्राट्छन्दसे नमो मुखे ।
ॐ छिन्नमस्तादेवतायै नमो हृदि ।
ॐ हूं बीजाय नमो गुह्ये ।
ॐ ॐ शक्तये नमः पादयोः ।
ॐ ह्रीं कीलकाय नमो नाभौ ।
ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

इति ऋष्यादिन्यासः 
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अथ करन्यास

ॐ ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ हूं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ क्लीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ हूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

इति करन्यासः 
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अथ ह्रदयन्यास
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ॐ ॐ हृदयाय नमः ।
ॐ हूं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं कवचाय हुम् ।
ॐ क्लीं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ हूं अस्त्राय फट् ।

इति हृदयादिषडङ्गन्यासः

ध्यानम

रक्ताभां रक्तकेशीं करकमललसत्कर्त्रिकां कालकान्तिं
विच्छिन्नात्मीयमुण्डासृगरुणबहुलोदग्रधारां पिबन्तीम् ।
विघ्नाभ्रौघप्रचण्डश्वसनसमनिभां सेवितां सिद्धसङ्घैः
पद्माक्षीं छिन्नमस्तां छलकरदितिजच्छेदिनीं संस्मरामि ॥
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इति ध्यानम् 
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वन्देऽहं छिन्नमस्तां तां छिन्नमुण्डधरां पराम् ।
छिन्नग्रीवोच्छटाच्छन्नां क्षौमवस्त्रपरिच्छदाम् ॥२॥

सर्वदा सुरसङ्घेन सेविताङ्घ्रिसरोरुहाम् ।
सेवे सकलसम्पत्त्यै छिन्नमस्तां शुभप्रदाम् ॥३॥

यज्ञानां योगयज्ञाय या तु जाता युगे युगे ।
दानवान्तकरीं देवीं छिन्नमस्तां भजामि ताम् ॥४॥

वैरोचनीं वरारोहां वामदेवविवर्द्धिताम् ।
कोटिसूर्य्यप्रभां वन्दे विद्युद्वर्णाक्षिमण्डिताम् ॥५॥

निजकण्ठोच्छलद्रक्तधारया या मुहुर्मुहुः ।
योगिनीस्तर्पयन्त्युग्रा तस्याश्चरणमाश्रये ॥६॥

हूमित्येकाक्षरं मन्त्रं यदीयं युक्तमानसः ।
यो जपेत्तस्य विद्वेषी भस्मतां याति तां भजे ॥७॥

हूं स्वाहेति मनुं सम्यग्यः स्मरत्यर्तिमान्नरः ।
छिनत्ति च्छिन्नमस्ताया तस्य बाधां नमामि ताम् ॥८॥

यस्याः कटाक्षमात्रेण क्रूरभूतादयो द्रुतम् ।
दूरतः सम्पलायन्ते च्छिन्नमस्तां भजामि ताम् ॥९॥

क्षितितलपरिरक्षाक्षान्तरोषा सुदक्षा
छलयुतखलकक्षाच्छेदने क्षान्तिलक्ष्या ।
क्षितिदितिजसुपक्षा क्षोणिपाक्षय्यशिक्षा
जयतु जयतु चाक्षा च्छिन्नमस्तारिभक्षा ॥१०॥

कलिकलुषकलानां कर्त्तने कर्त्रिहस्ता
सुरकुवलयकाशा मन्दभानुप्रकाशा ।
असुरकुलकलापत्रासिकाऽम्लानमूर्ति
जयतु जयतु काली च्छिन्नमस्ता कराली ॥११॥

भुवनभरणभूरिभ्राजमानानुभावा
भवभवविभवानां भारणोद्भातभूतिः ।
द्विजकुलकमलानां भासिनी भानुमूर्ति
भवतु भवतु वाणी च्छिन्नमस्ता भवानी ॥१२॥

मम रिपुगणमाशु च्छेत्तुमुग्रं कृपाणं
सपदि जननि तीक्ष्णं छिन्नमुण्डं गृहाण ।
भवतु तव यशोऽलं छिन्धि शत्रून्खलान्मे
मम च परिदिशेष्टं छिन्नमस्ते क्षमस्व ॥१३॥

छिन्नग्रीवा छिन्नमस्ता छिन्नमुण्डधराऽक्षता ।
क्षोदक्षेमकरी स्वक्षा क्षोणीशाच्छादनक्षमा ॥१४॥

वैरोचनी वरारोहा बलिदानप्रहर्षिता ।
बलिपूजितपादाब्जा वासुदेवप्रपूजिता ॥१५॥

इति द्वादशनामानि च्छिन्नमस्ताप्रियाणि यः ।
स्मरेत्प्रातः समुत्थाय तस्य नश्यन्ति शत्रवः ॥१६॥

यां स्मृत्वा सन्ति सद्यः सकलसुरगणाः सर्वदा सम्पदाढ्याः
शत्रूणां सङ्घमाहत्य विशदवदनाः स्वस्थचित्ताः श्रयन्ति ।
तस्याः सङ्कल्पवन्तः सरसिजचरणां सततं संश्रयन्ति साऽऽद्या
श्रीशादिसेव्या सुफलतु सुतरं छिन्नमस्ता प्रशस्ता ॥१७॥

इदं हृदयमज्ञात्वा हन्तुमिच्छति यो द्विषम् ।
कथं तस्याचिरं शत्रुर्नाशमेष्यति पार्वति ॥१८॥

यदीच्छेन्नाशनं शत्रोः शीघ्रमेतत्पठेन्नरः ।
छिन्नमस्ता प्रसन्ना हि ददाति फलमीप्सितम् ॥१९॥

शत्रुप्रशमनं पुण्यं समीप्सितफलप्रदम् ।
आयुरारोग्यदं चैव पठतां पुण्यसाधनम् ॥२०॥

॥इति श्रीनन्द्यावर्ते महादेवपार्वतीसंवादे श्रीछिन्नमस्ताहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


मंत्र - यन्त्र और तंत्र - Mantra - Yantra aur Tantra

मंत्र - यन्त्र और तंत्र एक विवेचन 





भारतीय संस्कृति या कहें कि आर्य सभ्यता मन्त्र - यन्त्र और तंत्र का सबसे समृद्ध भंडार है - हमारी संस्कृति में यदि देखा जाए तो प्रारम्भ काल से ही अनजान को जानने के प्रति जिज्ञासा का भाव रहा है - यदि बहुत ध्यान से विश्लेषण किया जाये तो हम पाते हैं कि यह समृद्ध भंडार मुख्यतः संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध है - सर्वप्रथम मन्त्रों कि उत्पत्ति हुयी !


वस्तुतः मन्त्रों को यदि गहन दृष्टि से देखा जाये तो वास्तव में ये एक निश्चित आवृत्ति कि विशेष प्रार्थना होते हैं जिनमे मुख्यतः प्रणव - बीज मंत्र - इच्छा / आग्रह - प्रणव - समर्पण इत्यादि सम्मिलित होते हैं -!


कई बार मन्त्रों में प्रणव और बीज मन्त्रों का आभाव पाया जाता है ऐसे मंत्र सिर्फ तात्कालिक प्रभावयुक्त होते हैं इन मन्त्रों कि ऊर्जा सार्वभौमिक और सर्वकालिक नहीं होती है -!


चूँकि किसी भी विधा के निर्माण में समय - देश और भाषा का पूर्ण प्रभाव होता है ऐसे दशा में चूँकि मन्त्रों का निर्माण वैदिक काल में हुआ और वैदिक काल आर्य संस्कृति से सम्बद्ध है एवं आर्यों कि मुख्य भाषा संस्कृत थी इसलिए सभी मन्त्रों कि भाषा संस्कृत ही है -!


इसके बाद लोक भाषाओँ में भी मन्त्रों का निर्माण हुआ क्योंकि संस्कृत थोड़ी क्लिष्ट भाषा कि श्रेणी मे आती है और इसके अलावा स्थानीय - या लोक संस्कृतियों में बहुधा शिक्षा का स्तर कम होने के कारण उनके लिए संस्कृत मन्त्रों का पठन - पाठन एवं उच्चारण असम्भवप्राय था -!


जैसा कि मैं पहले ही ऊपर कह चूका हूँ कि " मन्त्रों का मुख्य विषय या उद्देश्य अपनी इच्छा या प्रार्थना को एक विशेष लयबद्ध तरीके से अपने इष्ट के सामने रखने की प्रणाली है "


यदि सामान्य अपवादों को छोड़ दिया जाये तो इंसान आदिकाल से ही अनजान शक्तियों के प्रति संशकित रहा है एवं यही कारन रहा है कि वह उनको प्रसन्न करने या रखने के लिए विविध प्रणालियों का प्रणेता भी रहा है -! इसी क्रम में यदि देखा जाये तो हर प्रकार के मन्त्रों का आविर्भाव हुआ और वे प्रचलन में आते गए -!


चूँकि वैदिक काल में साधनाओं और पठन - पाठन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सिर्फ ब्राह्मण समाज का ही रहा है एवं अन्य सभी समुदायों को उनके लिए बनाये गए स्तरों में बाँध दिया गया - समय गुजरता रहा समाज के लिए जो स्तर कार्य या कार्य विषेशज्ञता के आधार पर बनाया गया था उसका आधार जातिगत होता गया - एवं कुछ समुदायों के द्वारा इस पर एकाधिकार बनाये रखने के लिए कठोर नियमों कि प्रणाली बना गयी एवं निर्धारित कर दिया कि जाती विशेष के लोग इन कार्यों को नहीं करेंगे -!


इंसान मानसिकता होती है कि अपनी मर्जी से वह जैल कि कालकोठरी में भी सुख का अनुभव करता है लेकिन यदि जबर्दस्ती उसे बैठने को कहा जाये तो वह बागी हो जाता है -!


यही वजह रही कि जब उस काल में वेदिक पठन - पाठन एवं धार्मिक कृत्यों पर रोक लगा दी गयी तो प्रतिबंधित जन समुदाय का मन बागी हो उठा और उन्हों ने अपने लिए कथित उच्च वर्ग से अलग देवी देवताओं एवं प्रणालियों कि संरचना कर ली एवं कहीं मानसिक तो कहीं अनुष्ठानिक रूप से वे उसमे संलग्न होने लगे -!


विचारधाराएं और शाखाएं हमेशा विरोधी प्रवृत्तियों को इंगित करती हैं इतर शाखा / मार्ग तभी निर्मित होते है जबकि सामान्य मतों या मान्यताओं में भेद या विरोध परिलक्षित होने लग जाता है -!


आज यदि देखा जाये तो साधनात्मक क्षेत्र में बहुत से मार्ग और शाखाएं नजर आते हैं लेकिन वास्तव में प्रारम्भ में ऐसा नहीं था - इसके अलावा कोई भी साधना या आराधना हमेशा मानसिक संतुष्टि को इंगित करती है - एवं कभी भी दो मानों के बीच शत प्रतिशत समानता सम्भव नहीं हो सकती इसी के परिणामस्वरूप अनेक मार्गों का प्रचलन हुआ जिसमे से स्थानीय या लोक संस्कृतियों कि अपनी अलग धाराएं भी दृश्यमान हुयीं !


जैसे कि :-


वैदिक मंत्र
शाबर मंत्र
जैन मंत्र इत्यादि

१. वैदिक मंत्र :- वैदिक मन्त्र पूर्ण रूपेण संस्कृत भाषा में निर्मित किये गए थे एवं साहित्यनुसार इनके प्रणेता महान ऋषि - साधक एवं समय - समय पर उनके मूल देवी देवताओं के श्री मुख से भी इनकी उत्पत्ति कही जाती है - बहुत से स्तोत्रों को खुद भगवान् शिव ने माता पारवती के साथ हुए संवादों में उनकी जिज्ञासा के परिणाम स्वरुप प्रकट किया -!


२. शाबर मंत्र :- शाबर मन्त्रों के बारे में मान्यता है कि इन मन्त्रों के प्रथम अविष्कारक जंगल में रहने वाले शबर जाती के लोगों द्वारा हुआ - वस्तुतः इन का भी मूल रूप और भावना वही है जो कि वैदिक मन्त्रों में होती है लेकिन या स्थानीय संस्कृति का हिस्सा थे - लेकिन समयकाल में इनका भंडार भी बहुत समृद्ध हुआ एवं अनेक महान ऋषि और मनीषियों ने इनके विस्तार में खूब योगदान दिया वस्तुतः इनके मूल उद्गम का कारण संस्कृत भाषा कि क्लिष्टता और जातिगत प्रतिबन्ध ही थे -!


३. जैन मंत्र :- जैन संप्रदाय वास्तव में प्रारम्भ में मन्त्रों का पक्षधर नहीं था एवं जैन समुदाय में कठिन नियमों तथा परिश्रम पूर्वक साधनाओं में बल दिया जाता था लेकिन जैसा कि इंसान कि मनोवृत्ति होती है कि वह उपलब्ध तकनीकों के आधार पर सरल रास्ते का चयन करना चाहता है न्यूनतम निवेश और उच्चतम प्राप्ति सम्भव हो सके इसलिए समयांतराल में जैन धर्म में भी मन्त्रों का प्रचलन होने लगा - !


इन समस्त शाखाओं के प्रचलन में आने की एक और भी बड़ी वजह थी कि वैदिक मन्त्रों को भगवन शिव के द्वारा कीलित कर दिया जाना एवं बिना गुरु के वैदिक साधनाओं को संपन्न करने कि बाध्यता जैसा कि एक जगह पर भगवान् शिव का एक कथन उद्धृत है " जो भी व्यक्ति बिना गुरु कि आज्ञा के वैदिक मन्त्रों का पठन - पाठन एवं जाप करता वह अपने बल - बुद्धि और आयु का नाश कर बैठता है एवं वह अवश्य ही दंड का भागी है "


सही मार्गदर्शन और उपयुक्त गुरुओं कि अनुपलब्धता भी एक बहुत बड़ा कारक रही है -!


मंत्र :- मंत्र वास्तव में एक या एक से अधिक परम शक्तियों के बीज मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त करने हुए निर्धारित लय के साथ एक निर्धारित आवृत्ति हैं जिसमे ध्वनि के माध्यम से अपने इष्ट से अपना संपर्क जोड़ने कि एवं अपनी बात स्वीकार करवाने कि भावना निहित होती है -!


यन्त्र :- यन्त्र एक चित्रात्मक विधा है जिसमे अपने इष्ट के लिए निहित पूर्वनिर्धारित तरीके से एक चित्र का निर्माण करके एवं मन्त्रों के उच्चारण के साथ यंत्र में प्राणप्रतिष्ठा करके उनकी साधना या अभिहित समस्या के समाधान के मार्ग पर अग्रसर होने कि भावना निहित होती है - तंत्र की संकल्पना वस्तुतः यहीं से प्रारम्भ होती है


तंत्र :- तंत्र उपरोक्त वर्णित दोनों विधाओं का संग्रह है जिसमे मन्त्र एवं यन्त्र का एक समुचित समावेश होता है - लेकिन कई बार देखने को मिलता है कि इसमें किसी एक उपरोक्त विधा ( मंत्र एवं यन्त्र ) में से किसी एक का प्रयोग नहीं भी हो सकता है लेकिन किसी एक अनुष्ठान के लिए प्रयुक्त समस्त सामग्री में कुछ सामग्री मंत्र प्रभाव युक्त होती ही होती है यदि कोई भी व्यक्ति इस बात से इंकार करता है कि उसने तंत्र में मंत्र और यंत्रों का प्रयोग नहीं किया है तो यह तय है कि वह या तो झूठ बोल रहा है या फिर सच बताना नहीं चाहता है -!


इसमें बहुत से माध्यमों का प्रयोग किया जाता है जिसमे वनस्पतियां - चित्रात्मक अभिवक्तियां एवं मन्त्रों तथा अनेक प्रकार के कर्मकांडों का प्रयोग होता है -!

Tuesday, 25 March 2014

नल्लूर् श्रीकालिका श्रुतिसुधा - Nullur Kalika Shrutisudha

नल्लूर् श्रीकालिका श्रुतिसुधा





श्रीमत्सुन्दरपूर्विहाररसिकां कारुण्य-सिन्धुं शिवां
डक्का-शूल-कपाल-वह्नि-छुरिका-घण्टाऽर्धखेटोज्ज्वलाम् ।
किंचित्कुञ्चित-दक्षपाद-कमलां भूस्पृष्ट-वामाङ्घ्रिकां
आसीनां कुलदेवतां हृदि भजे श्रीकालिकामातरम् ॥१॥

कावेरीकृत-सस्यवृद्धिमहिते ग्रामे द्विजैराधिते
कुन्ती-पुण्यद-सप्तसागरतटे संशोभमानां शुभाम् ।
कल्याणप्रद-सुन्दरेश-सदने संस्थापितां सौख्यदां
नारीकेल-वनावृतां हृदि भजे श्रीकालिकामम्बिकाम् ॥२॥

सा त्वं दक्षिण-कर्णभूषणमहो कृत्वाऽसुरं भीषणं
शूलेनाऽसुरमन्यमुग्रमवनौ संच्छेद्य क्रुद्धाऽप्यलम् ।
श्रीमातः कुलदेवते तव शिशोर्मे सुप्रसन्नाऽभयं
दत्वा सर्वमभीप्सितं च दयया नित्यन्नु संरक्षसि ॥३॥

यद्यप्यत्र विभासि कोपकृतिभिर्नानायुधालङ्कृता
सेवन्ते कति गर्भिणीयुवतयः त्वामम्बिके निर्भयम् ।
डोलाभिश्च विचित्र-कङ्कण-गणैस्ते सन्निधिं भूषितं
कृत्वाऽऽराधनपूर्वकं शुभगुणान्नूनं लभन्ते सुतान् ॥४॥

एवं स्तोतुमनर्गलां सुकविताशक्तिं प्रदेह्यम्बिके
ज्ञानं सर्वसरस्वतीषु विमलं वाक्पाटवं चोत्तमम् ।
सद्भुद्धिं सुमनोऽपि देहि सुदृढं गात्रं च कीर्तिं श्रियं
सोढ्वा त्वत्पदभक्तिमेव नितरां सर्वापराधांश्च मे ॥५॥

जय माँ महाकाली






कामकलाकालीस्तोत्रम्




श्री गणेशाय नमः ।

महाकाल उवाच

अथ वक्ष्ये महेशानि देव्याः स्तोत्रमनुत्तमम् ।
यस्य स्मरणमात्रेण विघ्ना यान्ति पराङ्मुखाः ॥१॥

विजेतुं प्रतस्थे यदा कालकस्या-
सुरान् रावणो मुञ्जमालिप्रवर्हान् ।
तदा कामकालीं स तुष्टाव
वाग्भिर्जिगीषुर्मृधे बाहुवीर्य्येण सर्वान् ॥२॥

महावर्त्तभीमासृगब्ध्युत्थवीची-
परिक्षालिता श्रान्तकन्थश्मशाने ।
चितिप्रज्वलद्वह्निकीलाजटाले
शिवाकारशावासने सन्निषण्णाम् ॥३॥

महाभैरवीयोगिनीडाकिनीभिः
करालाभिरापादलम्बत्कचाभिः ।
भ्रमन्तीभिरापीय मद्यामिषास्रान्यजस्रं
समं सञ्चरन्तीं हसन्तीम् ॥४॥

महाकल्पकालान्तकादम्बिनी-
त्विट्परिस्पर्द्धिदेहद्युतिं घोरनादाम् ।
स्फुरद्द्वादशादित्यकालाग्निरुद्र-
ज्वलद्विद्युदोघप्रभादुर्निरीक्ष्याम् ॥५॥

लसन्नीलपाषाणनिर्माणवेदि-
प्रभश्रोणिबिम्बां चलत्पीवरोरुम् ।
समुत्तुङ्गपीनायतोरोजकुम्भां
कटिग्रन्थितद्वीपिकृत्त्युत्तरीयाम् ॥६॥

स्रवद्रक्तवल्गन्नृमुण्डावनद्धा-
सृगाबद्धनक्षत्रमालैकहाराम् ।
मृतब्रह्मकुल्योपक्लृप्ताङ्गभूषां
महाट्टाट्टहासैर्जगत् त्रासयन्तीम् ॥७॥

निपीताननान्तामितोद्धृत्तरक्तो-
च्छलद्धारया स्नापितोरोजयुग्माम् ।
महादीर्घदंष्ट्रायुगन्यञ्चदञ्च-
ल्ललल्लेलिहानोग्रजिह्वाग्रभागाम् ॥८॥

चलत्पादपद्मद्वयालम्बिमुक्त-
प्रकम्पालिसुस्निग्धसम्भुग्नकेशाम् ।
पदन्याससम्भारभीताहिराजा-
ननोद्गच्छदात्मस्तुतिव्यस्तकर्णाम् ॥९॥

महाभीषणां घोरविंशार्द्धवक्त्रै-
स्तथासप्तविंशान्वितैर्लोचनैश्च ।
पुरोदक्षवामे द्विनेत्रोज्ज्वलाभ्यां
तथान्यानने त्रित्रिनेत्राभिरामाम् ॥१०॥

लसद्वीपिहर्य्यक्षफेरुप्लवङ्ग-
क्रमेलर्क्षतार्क्षद्विपग्राहवाहैः ।
मुखैरीदृशाकारितैर्भ्राजमानां
महापिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् ॥११॥

भुजैः सप्तविंशाङ्कितैर्वामभागे
युतां दक्षिणे चापि तावद्भिरेव ।
क्रमाद्रत्नमालां कपालं च शुष्कं
ततश्चर्मपाशं सुदीर्घं दधानाम् ॥१२॥

ततः शक्तिखट्वाङ्गमुण्डं भुशुण्डीं
धनुश्चक्रघण्टाशिशुप्रेतशैलान् ।
ततो नारकङ्कालबभ्रूरगोन्माद-
वंशीं तथा मुद्गरं वह्निकुण्डम् ॥१३॥

अधो डम्मरुं पारिघं भिन्दिपालं
तथा मौशलं पट्टिशं प्राशमेवम् ।
शतघ्नीं शिवापोतकं चाथ दक्षे
महारत्नमालां तथा कर्त्तुखड्गौ ॥१४॥

चलत्तर्ज्जनीमङ्कुशं दण्डमुग्रं
लसद्रत्नकुम्भं त्रिशूलं तथैव ।
शरान् पाशुपत्यांस्तथा पञ्च कुन्तं
पुनः पारिजातं छुरीं तोमरं च ॥१५॥

प्रसूनस्रजं डिण्डिमं गृध्रराजं
ततः कोरकं मांसखण्डं श्रुवं च ।
फलं बीजपूराह्वयं चैव सूचीं
तथा पर्शुमेवं गदां यष्टिमुग्राम् ॥१६॥

ततो वज्रमुष्टिं कुणप्पं सुघोरं
तथा लालनं धारयन्तीं भुजैस्तैः ।
जवापुष्परोचिष्फणीन्द्रोपक्लृप्त-
क्वणन्नूपुरद्वन्द्वसक्ताङ्घ्रिपद्माम् ॥१७॥

महापीतकुम्भीनसावद्धनद्ध
स्फुरत्सर्वहस्तोज्ज्वलत्कङ्कणां च ।
महापाटलद्योतिदर्वीकरेन्द्रा-
वसक्ताङ्गदव्यूहसंशोभमानाम् ॥१८॥

महाधूसरत्त्विड्भुजङ्गेन्द्रक्लृप्त-
स्फुरच्चारुकाटेयसूत्राभिरामाम् ।
चलत्पाण्डुराहीन्द्रयज्ञोपवीत-
त्विडुद्भासिवक्षःस्थलोद्यत्कपाटाम् ॥१९॥

पिषङ्गोरगेन्द्रावनद्धावशोभा-
महामोहबीजाङ्गसंशोभिदेहाम् ।
महाचित्रिताशीविषेन्द्रोपक्लृप्त-
स्फुरच्चारुताटङ्कविद्योतिकर्णाम् ॥२०॥

वलक्षाहिराजावनद्धोर्ध्वभासि-
स्फुरत्पिङ्गलोद्यज्जटाजूटभाराम् ।
महाशोणभोगीन्द्रनिस्यूतमूण्डो-
ल्लसत्किङ्कणीजालसंशोभिमध्याम् ॥२१॥

सदा संस्मरामीदृशों कामकालीं
जयेयं सुराणां हिरण्योद्भवानाम् ।
स्मरेयुर्हि येऽन्येऽपि ते वै जयेयु-
र्विपक्षान्मृधे नात्र सन्देहलेशः ॥२२॥

पठिष्यन्ति ये मत्कृतं स्तोत्रराजं
मुदा पूजयित्वा सदा कामकालीम् ।
न शोको न पापं न वा दुःखदैन्यं
न मृत्युर्न रोगो न भीतिर्न चापत् ॥२३॥

धनं दीर्घमायुः सुखं बुद्धिरोजो
यशः शर्मभोगाः स्त्रियः सूनवश्च ।
श्रियो मङ्गलं बुद्धिरुत्साह आज्ञा
लयः शर्म सर्व विद्या भवेन्मुक्तिरन्ते ॥२४॥




॥इतिश्रीमहावामकेश्वरतन्त्रे कालकेयहिरण्यपुरविजये 
रावणकृतं कामकलाकालीभुजङ्गप्रयातस्तोत्रराजं सम्पूर्णम् ॥




Monday, 24 March 2014

माता हिंगुलाज साधना - Mata Hingula / Hinglaj / Hingulaj sadhna

माता हिंगुलाज साधना - Mata Hingula / Hinglaj / Hingulaj sadhna



माता हिंगुलाज का उद्भव दक्ष यज्ञ के समय जब माता सती ने आत्मदाह कर लिया एवं इसके पश्चात् भगवन शिव माता के मृत शरीर को लेकर ब्रह्माण्ड के चक्कर काटने लगे - ब्रह्माण्ड का संतुलन डगमगाने लगा उस समय सभी देवताओं की प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि सती के मृत शरीर कि छिन्न - भिन्न कर दो उस समय सुदर्शन चक्र ने सती के अंगो को काटना प्रारम्भ किया और इस क्रम में माता के ब्रह्मरंध्र का हिस्सा जहाँ पर गिरा वहाँ एक शक्तिपीठ का अस्तित्व बना जिसे ( हिंगुल / हिंगुलाज ) शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है -!


यह शक्ति पीठ भारत से बाहर पाकिस्तान में अवस्थित है ( कराची शहर से १२५ किलोमीटर उत्तर पूर्व बलूचिस्तान क्षेत्र में ) यहाँ कि अधिष्ठात्री शक्ति कोट्टरी और भैरव भीमलोचन के नाम से जाने जाते हैं -!


आने वाले नवरात्रों और माता हिंगुलाज के भक्तों कि मांग पर मैं माता हिंगुलाज कि पूजा विधि का वर्णन करने जा रहा हूँ जिसका आधार वैदिक और षोडशोपचार पूजन है - किन्तु किसी भी पूजन में सामर्थ्य बहुत महत्व रखती है इसलिए जो भी भक्त इस विस्तृत पूजन का विधान न कर सकें उनके लिए पंचोपचार पूजन का विधान भी उनता ही महत्व रखता है और बराबर फल ही मिलता है -!~


लेकिन आलस्य और प्रमाद कि वजह से यदि विधान को छोटा करने कि कोशिश कि जाती है तो उसका परिणाम भी उसी तरह छोटा होता है - इसलिए मैं अपने सभी विधानों में एक ही बात मुख्य रूप से सम्मिलित करता हूँ कि यदि सम्भव है और आपकी सामर्थ्य है तो वैदिक विधान का ही पालन करें यदि आपके पास सामर्थ्य नहीं है तो लघु विधान का पालन करें - इसके अतिरिक्त यदि मेरे लिखे हुए विधान और आपके पारम्परिक विधान में कोई विषमता है तो आप अपने पारम्परिक / लोक विधान का पालन करें :-!


माता को लाल रंग एवं गुलाब का इत्र बहुत पसंद है 

पूजन क्रम :-

माता कि पूजा कई उपचारों से कि जाती है जिसमे कि :-

१. पंचोपचार :-

  • गंध
  • पुष्प
  • धूप
  • दीप
  • नैवेद्य
२. दशोपचार :-

  1. पाद्य
  2. अर्घ्य
  3. आचमन
  4. मधुपर्क
  5. पुनराचमन
  6. गन्ध
  7. पुष्प
  8. धूप
  9. दीप
  10. नैवेद्य
३. षोडशोपचार :- षोडशोपचार के मामले में कभी भी एक सामान क्रम और समान चरण नहीं मिलते हैं क्योंकि साधक के पास उपलब्ध साधनों और श्रद्धा तथा पूजा के प्रकार के आधार पर इनके क्रम और संख्या में परिवर्तन हो जाते हैं अतएव इस सम्बन्ध में भ्रमित न हों और अपनी सामर्थ्यानुसार चरणों का अनुसरण करें ( जहाँ पर संख्या बढ़ जाती है वहाँ वास्तव में मूल चरण के उप चरण जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं जैसे कि उदाहरणार्थ - मधुपर्क = दूध , दही , शक्कर / चीनी , घी , शहद - अब यहाँ पर यदि देखा जाये तो मधुपर्क के पांच उप चरण बन गए )

प्रथम पूजन खंड


आवाहन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आगच्छय आगच्छय ::

आसन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आसनं समर्पयामि ::

पाद्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय पाद्यं समर्पयामि ::

अर्घ्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय अर्घ्यं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आचमनीयं निवेदयामि ::

मधुपर्क :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय मधुपर्कं समर्पयामि ::

आचमन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
   मनः शिवे श्री हिंगुलाय पुनराचमनीयम् निवेदयामि   ::

स्नान :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय स्नानं निवेदयामि ::

वस्त्र :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय प्रथम वस्त्रं समर्पयामि ::

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय द्वितीय वस्त्रं समर्पयामि ::

आभूषण :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय आभूषणं समर्पयामि ::

सिन्दूर :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय सिन्दूरं समर्पयामि ::

कुंकुम :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय कुंकुमं समर्पयामि ::

गन्ध / इत्र :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय सुगन्धित द्रव्यं समर्पयामि ::
पुष्प

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय पुष्पं समर्पयामि ::

धूप / अगरबत्ती :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय धूपं समर्पयामि ::

दीप :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय दीपं दर्शयामि ::

नैवेद्य :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नैवेद्यं समर्पयामि ::

मध्यम पूजन खंड :-

नैवेद्य समर्पण के बाद पूजन का मध्यम क्रम आरम्भ होता है जिसमे शप्तशती पाठ एवं अन्य कर्म सम्पादित किये जाते हैं :-

  • अष्टोत्तरशत नाम 
  • कवच 
  • अर्गला 
  • कीलक 
  • चालीसा 
  • अन्य स्तोत्र 

अष्टोतर शत नाम :-
  1. हिंगुले 
  2. हिंगलाज 
  3. अमृतरूपिणी 
  4. शिवे 
  5. कोट्टरी 
  6. बलूची 
  7. बलूच क्षेत्र निवासिनी 
  8. दुर्गा 
  9. क्षमा 
  10. शिवा 
  11. धात्री 
  12. गौरी 
  13. पार्वती
  14. दुष्ट संहारिणी 
  15. भक्त भयहारिणी 
  16. भव तारिणी 
  17. मंगला 
  18. स्वाहा 
  19. स्वधा 
  20. कोटराक्षी 
  21. दक्ष यज्ञ विध्वंसिनी 
  22. शिव बल्लभा 
  23. काली 
  24. कपालिनी 
  25. सती
  26. साध्वी
  27. जया
  28. आद्या
  29. त्रिनेत्रा
  30. शूलधारिणी
  31. पिनाकधारिणी
  32. महातपा
  33. मन
  34. बुद्धि
  35. चित्तरूपा
  36. चिता
  37. चिति
  38. सर्वमंत्रमयी
  39. सत्ता
  40. सत्यानन्द स्वरूपिणी
  41. अनंता
  42. भाविनी
  43. अभव्या
  44. सदागति
  45. शाम्भवी
  46. देवमाता
  47. चिंता
  48. रत्नप्रिया
  49. सर्वविद्या
  50. दक्ष कन्या
  51. अपर्णा
  52. अनेकवर्णा
  53. सुन्दरी
  54. सुरसुन्दरी
  55. वनदुर्गा
  56. मातंगी
  57. ब्राह्मी
  58. माहेश्वरी
  59. एन्द्री
  60. कौमारी
  61. वैष्णवी
  62. चामुंडा
  63. वाराही
  64. लक्ष्मी
  65. विमला
  66. उत्कर्षिणी
  67. ज्ञाना
  68. क्रिया
  69. नित्या 
  70. बुद्धिदा
  71. बहुला
  72. सर्व वाहन वाहना
  73. निशुम्भ-शुम्भ हननी
  74. महिषासुरमर्दिनी
  75. मधुकैटभ हन्त्री
  76. चंड मुंड विनासिनी
  77. सर्वासुरविनाशा
  78. सर्वदानवघातिनी
  79. सर्वशास्त्रमयी
  80. सत्या
  81. सर्वास्त्र धारिणी
  82. कुमारी
  83. एककन्या
  84. कैशोरी
  85. युवती
  86. प्रोढ़ा
  87. वृद्धमात
  88. बलप्रदा
  89. महोदरी
  90. मुक्तकेशी
  91. घोररूपा
  92. महाबला
  93. अग्निज्वाला
  94. रौद्रमुखी
  95. कालरात्रि
  96. तपस्विनी
  97. नारायणी
  98. भद्रकाली
  99. विष्णुमाया
  100. जलोदरी
  101. शिवदूती
  102. कराली
  103. अनंता
  104. परमेश्वरी
  105. कात्यायिनी
  106. सावित्री
  107. प्रत्यक्षा
  108. ब्रह्मवादिनी


कवच :-

।। अथ देवी कवचम् ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।

अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ।। ६।

न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः ।। ८।।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ।। ९।।

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१०।।

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।।११।।

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ।।१२।।

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।।१३।।

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ।।१४।।

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।।१५।।

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।।१६।।

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७।।

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८।।

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।।१९।।

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।।२०।।

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ।।२१।।

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा तु नासिके ।।२२।।

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।

नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ।। ३७।।

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्या च चक्रिणी ।। ३९।।

गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।।४१।।

रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।।४२।।

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३।।

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकामिकः ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।।४४।।

निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।। ४८।।

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ।। ४९।।

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।

गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे ह्रदि संस्थिते ।
मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभुतले ।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।।५३।।

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ।। ५४।।

देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५।।
लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ।। ५६।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देवीकवचं समाप्तम् ।

अर्गला स्तोत्रम :-
।।ॐ नमश्वण्डिकायै।।

मार्कण्डेय उवाच

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।। १।।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।। २।।

मधुकैटभविद्रावि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ३।।

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५।।

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ७।।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ९।।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ११।।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमयच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १३।।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १४।।

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १५।।

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १७।।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १९।।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २१।।

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २३।।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।।२४।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
स तु सप्तशतींसंख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्।।ॐ।। २५।।

।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ।।



कीलक स्तोत्रम :-

।। अथ कीलकस्तोत्रम् ।।

ॐ नमश्चण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच 

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।। १।।

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम् ।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ।। २।।

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि ।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ।। ३।।

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते ।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ।। ४।।

समग्राण्यपि सिद्धयन्ति लोकशङ्कामिमां हरः ।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ।। ५।।

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः ।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम् ।। ६।।

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः ।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।। ७।।

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।। ८।।

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ।। ९।।

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते ।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। १०।।

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति ।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।। ११।।

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने ।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदम् शुभम् ।। १२।।

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः ।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ।। १३।।

ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः ।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ।।ॐ।। १४।।

।। इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम् ।


चालीसा :-

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥


निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूं लोक फैली उजियारी॥


शशि ललाट मुख महाविशाला।
नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥


रूप मातु को अधिक सुहावे।
दरश करत जन अति सुख पावे॥


तुम संसार शक्ति लै कीना।
पालन हेतु अन्न धन दीना॥


अन्नपूर्णा हुई जग पाला।
तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥


प्रलयकाल सब नाशन हारी।
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥


शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥


रूप सरस्वती को तुम धारा।
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥


धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।
परगट भई फाड़कर खम्बा॥


रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥


लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।
श्री नारायण अंग समाहीं॥


क्षीरसिन्धु में करत विलासा।
दयासिन्धु दीजै मन आसा॥


हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी॥


मातंगी अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥


श्री भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥


केहरि वाहन सोह भवानी।
लांगुर वीर चलत अगवानी॥


कर में खप्पर खड्ग विराजै।
जाको देख काल डर भाजै॥


सोहै अस्त्र और त्रिशूला।
जाते उठत शत्रु हिय शूला॥


नगरकोट में तुम्हीं विराजत।
तिहुंलोक में डंका बाजत॥


शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे।
रक्तबीज शंखन संहारे॥


महिषासुर नृप अति अभिमानी।
जेहि अघ भार मही अकुलानी॥


रूप कराल कालिका धारा।
सेन सहित तुम तिहि संहारा॥


परी गाढ़ संतन पर जब जब।
भई सहाय मातु तुम तब तब॥


अमरपुरी अरु बासव लोका।
तब महिमा सब रहें अशोका॥


ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥


प्रेम भक्ति से जो यश गावें।
दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥


ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥


जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥


शंकर आचारज तप कीनो।
काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥


निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।
काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥


शक्ति रूप का मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो॥


शरणागत हुई कीर्ति बखानी।
जय जय जय जगदम्ब भवानी॥


भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥


मोको मातु कष्ट अति घेरो।
तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥


आशा तृष्णा निपट सतावें।
मोह मदादिक सब बिनशावें॥


शत्रु नाश कीजै महारानी।
सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥


करो कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।


जब लगि जिऊं दया फल पाऊं ।
तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥


दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।
सब सुख भोग परमपद पावै॥


देवीदास शरण निज जानी।
करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥


॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥





समापन खंड / अंतिम पूजन खंड :-

प्रणामाज्जलि / पुष्पांजलि :-

:: ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नमः स्वाहा
ब्रह्मरन्ध्रं हिंगुलायाम् भैरवः भीमलोचनः
कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी ::
पुष्पांजलिं समर्पयामि 

नीराजन :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नीराजनं समर्पयामि ::

दक्षिणा :-

::ॐ हिंगुले परम हिंगुले अमृतरूपिणी तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय दक्षिणां समर्पयामि ::


अपराधा क्षमा याचना :-

अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया । 
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । 
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥
अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् । 
यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदंबिके । 
ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् क। 
तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे । 
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥८॥

 
आरती :-

ॐ सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते ॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी । तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ टेक ॥

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को । उज्जवल से दो‌उ नैना, चन्द्रबदन नीको ॥ जय

कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै । रक्त पुष्प गलमाला, कण्ठन पर साजै ॥ जय

केहरि वाहन राजत, खड़ग खप्परधारी । सुर नर मुनिजन सेवक, तिनके दुखहारी ॥ जय

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती । कोटिक चन्द्र दिवाकर, राजत सम ज्योति ॥ जय

शुम्भ निशुम्भ विडारे, महिषासुर घाती । धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ जय

चण्ड मुण्ड संघारे, शोणित बीज हरे । मधुकैटभ दो‌उ मारे, सुर भयहीन करे ॥ जय

ब्रहमाणी रुद्राणी तुम कमला रानी । आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ जय

चौसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैरुं । बाजत ताल मृदंगा, अरु बाजत डमरु ॥ जय

तुम हो जग की माता, तुम ही हो भर्ता । भक्‍तन् की दुःख हरता, सुख-सम्पत्ति करता ॥ जय

भुजा चार अति शोभित, खड़ग खप्परधारी । मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ जय

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती । श्री मालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योति ॥ जय

श्री अम्बे जी की आरती, जो को‌ई नर गावै । कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावै ॥ जय


आरती आचमन / प्रहर आचमन

नवरात्रें कुछ विशेष तथ्य :-

१. नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।

२. नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है

३. माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है

४. नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए।

५. भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।

६. नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।

७ . लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्र मैं पान मैं गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें